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नियमसार
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जहाँ न इंद्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न तृषा है और न क्षुधा है वहीं निर्वाण होता
है । । १८० ।।
विकम्मं णोकम्मं णवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि । वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं । । १८१ । ।
जहाँ न कर्म है, न नोकर्म है, न चिंता है, न आर्त- रौद्र ध्यान है और न धर्म्य शुक्ल ध्यान हैं, वहीं निर्वाण होता है । । १८१ । ।
सिद्ध भगवान्का स्वरूप
विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलं विरयं ।
केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सपदेसत्तं । ।१८२ ।
उन सिद्ध भगवान्के केवलज्ञान है, केवलसुख है, केवलवीर्य है, केवलदर्शन है, अमूर्तिकपना है, अस्तित्व है तथा प्रदेशोंसे सहितपना है । । १८२ ।।
निर्वाण और सिद्धमें अभेद
णिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्ठा ।
कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जंत्तं । । १८३ ।।
निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण हैं ऐसा कहा गया है। कर्मसे विमुक्त आत्मा लोकापर्यंत जाता है ।।१८३ ।।
कर्मविमुक्त आत्मा लोकाग्रपर्यंत ही क्यों जाता है ? जीवाणं पुग्गलाणं, गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी ।
धम्मत्थिकायभावे, तत्तो परदो ण गच्छंति । । १८४ । ।
जीव और पुद्गलोंका गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक होता है। लोकाग्रके आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे कर्ममुक्त आत्माएँ नहीं जाती हैं । । १८४ । ।
ग्रंथ समारो
णियमं णियमस्स फलं, णिद्दिट्टं पवयणस्स भत्तीए ।
पुव्वावर विरोधो जदि, अवणीय पूरयंतु समयण्हा । । १८५ ।।
इस ग्रंथमें प्रवचनकी भक्तिसे नियम और नियमका फल दिखलाया गया है। इसमें यदि पूर्वापर विरोध हो तो आगमके ज्ञाता पुरुष उसे दूर कर पूर्ति करें । । १८५ ।।
ईसाभावेण पुणो, केई णिंदंति सुंदरं मग्गं ।
तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ।। १८६ ।।