________________
प्रस्तावना
तैंतीस भावकी अपेक्षा भी आत्माको ज्ञेय तथा भाव्यसे पृथक् सिद्ध किया है। जिस प्रकार दर्पण अपनेमें प्रतिबिंबित मयूरसे भिन्न है उसी प्रकार आत्मा अपने ज्ञानमें आये घटपटादि ज्ञेयोंसे भिन्न है और जिस प्रकार दर्पण ज्वालाओंके प्रतिबिंबसे संयुक्त होनेपर भी तज्जन्य तापसे उन्मुक्त रहता है इसी प्रकार आत्मा अपने अस्तित्वमें रहनेवाले सुख-दुःखरूप कर्मफलके अनुभवसे रहित है। इस तरह प्रत्येक परपदार्थोंसे भिन्न आत्माके अस्तित्वका श्रद्धान करना जीवतत्त्वके निरूपणका लक्ष्य है। इस प्रकरणके अंतमें कुंदकुंदस्वामीने उद्घोष किया है.
--
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदा रूवी ।
वि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तं पि ।। ३८ ।।
अर्थात् निश्चयसे मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानसे तन्मय हूँ, अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है।
इस सब कथनका तात्पर्य यह है कि यह जीव, पुद्गलके संयोगसे उत्पन्न हुई संयोगज पर्यायमें आत्मबुद्धि कर उनकी इष्ट-अनिष्ट परिणतिमें हर्ष-विषादका अनुभव करता हुआ व्यर्थ ही रागी -द्वेषी होता है और उनके निमित्तसे नवीन कर्मबंध कर अपने संसारकी वृद्धि करता है। जब यह जीव, परपदार्थोंसे भिन्न निज शुद्ध स्वरूपकी और लक्ष्य करने लगता है तब परपदार्थोंसे इसका ममत्वभाव स्वयमेव दूर होने लगता है।
जीवाजीवाधिकार
जीवके साथ अनादि कालसे कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल द्रव्यका संबंध चला आ रहा है। मिथ्यात्व दशामें यह जीव शरीररूप नोकर्मकी परिणतिको आत्माकी परिणति मानकर उसमें अहंकार करता है -- इस रूप ही मैं हूँ ऐसा मानता है अतः सर्वप्रथम इसकी शरीरसे पृथक्ता सिद्ध की है। उसके बाद ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और रागादिकभाव कर्मोंसे इसका पृथक्त्व दिखाया है। आचार्य महाराजने कहा है कि हे भाई! ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणमनसे निष्पन्न हैं, अतः पुद्गलके हैं, तू इन्हें जीव क्यों मान रहा है? यथा --
एए सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा ।
केवलिजिणेहि भणिया कह ते जीवोत्ति वुच्चंति । । ४४ । ।
स्पष्ट ही अजीव हैं उनके अजीव कहने में तो कोई खास बात नहीं है, परंतु जो अजीवाश्रित परिणमन जीवके साथ घुलमिलकर अनित्य तन्मयीभावसे तादात्म्य जैसी अवस्थाको प्राप्त हो रहे हैं, उन्हें अजीव सिद्ध करना इस अधिकारकी विशेषता है। रागादिक भाव अजीव हैं, गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास आदि भाव अजीव हैं यह बात यहाँतक सिद्ध की गयी है। अजीव हैं -- इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ये घटपटादिके समान अजीव हैं। यहाँ 'अजीव हैं' इसका इतना ही तात्पर्य है कि ये जीवक स्वभावपरिणति नहीं हैं। यदि जीवकी स्वभाव परिणति होती तो त्रिकालमें इनका अभाव नहीं होता । परंतु जिस पौद्गलिक कर्मकी उदयावस्थामें ये भाव होते हैं उसका अभाव होनेपर ये स्वयं विलीन हो जाते हैं। अग्निके संसर्गके पानीमें उष्णता आती है परंतु वह उष्णता सदाके लिए नहीं आती है। अग्निका संबंध दूर होते ही दूर हो जाती है। इसी प्रकार क्रोधादि द्रव्यकर्मोंके उदयकालमें होनेवाले रागादिभाव आत्मामें अनुभूत होते हैं, परंतु वे संयोगज भाव होनेसे आत्माके विभाव भाव हैं, स्वभाव नहीं, इसीलिए इनका अभाव हो जाता है।
ये रागादिक भाव आत्माको छोड़कर अन्य पदार्थोंमें नहीं होते इसलिए उन्हें आत्माके कहनेके लिए आचार्योंने एक अशुद्ध नयकी कल्पना की है। वे, 'शुद्ध निश्चय नयसे आत्माके नहीं हैं, परंतु अशुद्ध निश्चय नयसे आत्मा हैं' ऐसा कथन करते हैं, परंतु कुंदकुंद स्वामी विभावको आत्मा माननेके लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें आत्माके कहना, वे व्यवहार नयका विषय मानते हैं और उस व्यवहारका जिसे कि उन्होंने अभूतार्थ कहा है।