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नियमसार
व्यवहारचारित्राधिकार
अहिंसा महाव्रतका स्वरूप कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं।
तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ।।५६।। कुल, योनि, जीवसमास तथा मार्गणास्थान आदिमें जीवोंका ज्ञान कर उनके आरंभसे निवृत्तिरूप जो परिणाम है वह पहला अहिंसा महाव्रत है।
- सत्य महाव्रतका स्वरूपात रागेण व दोसेण व, मोहेण व मोसभासपरिणाम।
जो पजहदि साह सया, बिदियवयं होइ तस्सेव।।५७।। जो साधु रागसे , दोषसे अथवा मोहसे असत्य भाषाके परिणामको छोड़ता है उसीके सदा दूसरा सत्य महाव्रत होता है।।५७।।
अचौर्य महाव्रतका स्वरूप गामे वा णयरे वा, रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुचदि गहणभावं, तिदियवदं होदि तस्सेव।।५८।। जो ग्राममें, नगरमें अथवा वनमें परकीय वस्तुको देखकर उसके ग्रहणके भावको छोड़ता है उसीके तीसरा अचौर्य महाव्रत होता है।।५८।।
ब्रह्मचर्य महाव्रतका स्वरूप दट्ठण इच्छिरूवं, वांछाभावं णिवत्तदे तासु।
मेहुणसण्ण विवज्जिय, परिणामो अह तुरीयवदं ।।५९।। जो स्त्रियोंके रूपको देखकर उनमें वांछाभावको छोड़ता है अथवा मैथुन संज्ञासे रहित जिसके परिणाम हैं उसीके चौथा महाव्रत होता है।।५९।।
परिग्रहत्याग महाव्रतका स्वरूप सव्वेसिं गंथाणं, तागो णिरवेक्खभावणापुव्वं ।
पंचमवदमिदि भणिदं, चारित्तभरं वहंतस्स।।६०।। निरपेक्ष भावनापूर्वक अर्थात् संसारसंबंधी किसी भोगोपभोग अथवा मान सम्मानकी इच्छा नहीं