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________________ २१४ कुन्दकुन्द-भारती अजधाचारविजुत्तो, जदत्थपदणिच्छिदोपसंतप्पा। अफले चिरं ण जीवदि, इह सो संपुण्णसामण्णो।।७२।। जो मिथ्याचरित्रसे रहित है तथा यथावस्थित पदार्थोंका निश्चय होनेसे जिसकी आत्मा शांत है -- कषायके उद्रेकसे रहित है वह संपूर्ण मुनिपदको धारण करनेवाला मुनि इस निःसार संसारमें चिरकाल तक जीवित नहीं रहता अर्थात् शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।।७२।। आगे मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व दिखलाते हैं --- सम्मं विदिदपदत्था, चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं। विसयेसु णावसत्ता, जे ते सुद्धत्ति णिहिट्ठा।।७३।। जिन्होंने यथार्थ रूपसे समस्त तत्त्वोंको जान लिया है और जो बहिरंग तथा अंतरंग परिग्रहको छोड़कर पंचेंद्रियोंके विषयोंमें लीन नहीं हैं वे महामुनि शुद्ध हैं -- मोक्षतत्त्वको साधन करनेवाले हैं ऐसा कहा गया है।।७३ ।। आगे मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व सब मनोरथोंका स्थान है ऐसा कहते हैं -- सुद्धस्स य सामण्णं, भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं। सुद्धस्स य णिव्वाणं, सोच्चिय सिद्धो णमो तस्स।।७४।। साक्षात् मोक्षतत्त्वको साधन करनेवाले शुद्धोपयोगी मुनिके ही मुनिपद कहा गया है, उसीके दर्शन और ज्ञान कहे गये हैं, उसीके मोक्ष कहा गया है और वही सिद्धस्वरूप है। ऐसे शुद्धोपयोगी महामुनिको नमस्कार हो।।७४।। आगे शिष्यजनोंको शास्त्रका फल दिखलाते हुए प्रकृत ग्रंथको समाप्त करते हैं -- बुज्झदि सासणमेयं, सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं, लहुणा कालेण पप्पोदि।।७५।। जो पुरुष, गृहस्थ अथवा मुनिकी चर्यासे युक्त होता हुआ अरहंत भगवान्के इस शासनको समझता है वह अल्प कालमें ही प्रवचनसारको -- सिद्धांतके रहस्यभूत परमात्मभावको पा लेता है।। ***
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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