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प्रवचनसार
२०९ यदि वैयावृत्त्यके लिए उद्यत हुआ साधु षट्कायिक जीवोंकी हिंसा करता है तो वह मुनि नहीं है। वह तो श्रावकोंका धर्म है।।
___ यद्यपि वैयावृत्त्य अंतरंग तप है और शुभोपयोगी मुनियोंके कर्तव्योंमेंसे एक कर्तव्य है तथापि वे उस प्रकारकी वैयावृत्त्य नहीं करते जिसमें कि षट्कायिक जीवोंकी विराधना हो। विराधनापूर्वक वैयावृत्त्य करना श्रावकोंका धर्म है, न कि मुनियोंका।।५० ।।
यद्यपि परोपकारमें शुभ कषायके प्रभावसे अल्प कर्मबंध होता है तो भी शुभोपयोगी पुरुष उसे करे ऐसा उपदेश देते हैं --
जोण्हाणं णिरवेक्खं, सागारणगारचरियजुत्ताणं।
अणुकंपयोवयारं, कुव्वदु लेवो यदिवियप्पं ।।५१।। यद्यपि अल्प कर्मबंध होता है तथापि शुभोपयोगी श्रमण, गृहस्थ अथवा मुनिधर्मकी चर्यासे युक्त श्रावक और मुनियोंका निरपेक्ष हो दयाभावसे उपकार करे।।५१।। आगे उसी परोपकारके कुछ प्रकार बतलाते हैं --
रोगेण वा 'छुधाए, तण्हणया' वा समेण वा रूढं।
देट्ठा समणं साधू, पडिवज्जदु आदसत्तीए।।५२।। शुभोपयोगी मुनि, किसी अन्य मुनिको रोगसे, भूखसे, प्याससे अथवा श्रम -- थकावट आदिसे आक्रांत देख उसी अपनी शक्ति अनुसार स्वीकृत करे अर्थात् वैयावृत्त्यद्वारा उसका खेद दूर करे।।५२।।
आगे शुभोपयोगी मुनि वैयावृत्त्यके निमित्त लौकिक जनोंसे वार्तालाप भी करते हैं यह दिखलाते हैं --
वेज्जावच्चणिमित्तं, गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं।
लोगिगजणसंभासा, ण णिदिदा वा सुहोवजुदा।।५३।। ग्लान (बीमार) गुरु बाल अथवा वृद्ध साधुओंकी वैयावृत्त्यके निमित्त, शुभ भावोंसे सहित लौकिक जनोंके साथ वार्तालाप करना भी निंदित नहीं है।।५३।।
आगे यह शुभोपयोग मुनियोंके गौण और श्रावकोंके मुख्य रूपसे होता है ऐसा कथन करते
एसा पसत्थभूता, समणाणं वा पुणो घरत्थाणं। चरिया परेत्ति भणिदा, ता एव परं लहदि सोक्खं ।।५४।।
१. छुहाए ज. वृ. । २. तण्हाए ज. वृ. । ३. दिट्ठा ज. वृ. ।