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________________ प्रवचनसार इसलिए निरंतर प्रमादरहित ही प्रवृत्ति करनी चाहिए ।। १७ । । आगे भावहिंसारूप अंतरंग भंग (छेद) का सर्व प्रकारसे त्याग करना चाहिए ऐसा कहते हैं १९७ अयदाचारो समणो, छस्सुवि कायेसु बंधगोत्ति मदो । चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो । । १८ ।। अयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला साधु कायोंके विषयमें बंध करनेवाला है ऐसा माना गया है और वही साधु यदि निरंतर यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है तो जलमें कमलकी तरह कर्मबंधरूप लेपसे रहित होता है ।। १८ ।। आगे अंतरंग छेदका कारण होनेसे परिग्रहका सर्वथा त्याग करना चाहिए ऐसा कहते हैं। हवदि व ण हवदि बंधो, 'मदे हि जीवेऽध कायचेट्ठम्मि | बंधुवमुवधीदो, इदि समणा छंडिया सव्वं । । १९ । । गमनागमनरूप शरीरकी चेष्टामें जीवके मरनेपर कर्मका बंध होता भी है और नहीं भी होता है, परंतु परिग्रहसे कर्मबंध निश्चित होता है इसलिए मुनि सब प्रकारके परिग्रहका त्याग करते हैं। यदि अंतरंगमें प्रमादपरिणति है तो बाह्यमें जीववध कर्मबंधका कारण होता है अन्यथा नहीं । इसलिए कहा है कि शरीरकी चेष्टामें जो त्रस स्थावर जीवोंका विघात होता है उससे कर्मबंध होता भी है और नहीं भी होता है। परंतु परिग्रह अंतरंगके मूर्च्छा परिणामके बिना नहीं होता अतः उसके रहते हुए कर्मबंध जारी ही रहता है। यह विचार कर मुनि सब प्रकारके परिग्रहका त्याग कर चुकते हैं । यहाँतक कि वस्त्र तथा भोजनपात्र वगैरह कुछ भी अपने पास नहीं रखते हैं । । १९ ।। -- अब यहाँ कोई यह आशंका करे कि बाह्य परिग्रहका सर्वथा त्याग कर देनेपर भी यदि अंतरंगमें उसकी लालसा बनी रहती है तो उस त्यागसे क्या लाभ है? इस प्रश्नका समाधान करते हुए कहते हैं कि मुनिका जो बाह्य परिग्रह त्याग है वह अंतरंग लालसासे रहित ही होता है। ण हि णिरवेक्खो चाओ, ण हवदि भिक्खुस्स 'आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्ते, कहं णु कम्मक्खओ विहिओ ।। २० ।। १. १७ वीं गाथाके बाद ज. वृ. में निम्नांकित दो गाथाओंकी व्याख्या अधिक है -- उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।। ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये । मुच्छा परिग्गहोच्चिय अज्झप्पयमाणदो दिट्ठो।। जुम्मं २. वधकरोत्ति ज. वृ. । ३. मदम्हि ज. वृ. । ४. कायचेट्ठम्हि ज. वृ. 1५. आसयविसोहो ज. वृ. ६. कहं तु ज. वृ
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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