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________________ प्रवचनसार और चौदहवें गुणस्थानमें होते हैं ऐसा आगममें लिखा है। ध्यानका लक्षण एकाग्रचिंतानिरोध होता है -- किसी पदार्थमें मनोव्यापारको स्थिर करना ध्यान कहलाता है। जबकि केवली भगवान् त्रिलोक और त्रिकालसंबंधी समस्त पदार्थों को एक साथ जान रहे हैं तब उनके किसी एक पदार्थमें एकाग्रचिंतानिरोधरूप ध्यान किस प्रकार संभव हो सकता है? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इसका उत्तर श्री कुंदकुंद भगवान्ने इस प्रकार दिया है कि सर्वज्ञदेव जो परम सुखका अनुभव करते हैं वही उनका ध्यान है। यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उन्हें परमसुख प्राप्त नहीं है इसलिए उनका ध्यान करते हैं। परमसुख तो उन्हें घातिचतुष्कका क्षय होते ही प्राप्त हो जाता है इसलिए उसकी प्राप्तिके लिए ध्यान करते हैं यह बात नहीं है। किंतु स्थिरीभूत ज्ञानसे उसका अनुभव करते हैं ऐसा भाव ग्रहण करना चाहिए। वास्तवमें स्थिरीभूत ज्ञानको ध्यान कहते हैं। ज्ञानमें अस्थिरताके कारण कषाय और योग होते हैं। इसमेंसे कषाय तो दशम गुणस्थानतक ही रहती है, उसके आगे योगजन्य अस्थिरता रहती है जो तेरहवें गुणस्थानके अंतमें नष्ट होने लगती है और चौदहवें गुणस्थानमें बिलकुल नष्ट हो जाती है। अतः अस्थिरताके नष्ट जानेसे उनका ज्ञान स्थिरीभूत हो जाता है। यही उनका ध्यान है।।१०६।। आगे यह शुद्धात्माकी प्राप्ति ही मोक्षमार्ग है ऐसा निश्चय करते हैं -- एवं जिणा जिणिंदा, सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा। जादा णमोत्थु तेसिं, तस्स य णिव्वाणमग्गस्स।।१०७।। यतः सामान्य केवली, तीर्थंकर केवली तथा अन्य सामान्य मुनि इसी शुद्धात्मोपलब्धिरूप मार्गका अवलंबन कर सिद्ध हुए हैं अत: उन्हें और उस मोक्षमार्गको मेरा नमस्कार हो।।१०७।। आगे श्री कुंदकुंद स्वामी स्वयं इसी मोक्षमार्गकी परिणतिको स्वीकृत करते हुए अपनी भावना प्रकट तम्हा तध' जाणित्ता, अप्पाणं जाणगं 'सभावेण। परिवज्जामि ममत्तिं, उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्मि।।१०८।। इसलिए मैं भी उन्हीं सामान्य केवली तथा तीर्थंकर केवली आदिके समान स्वभावसे ज्ञायक आत्माको जानकर ममताको छोड़ता हूँ और ममताके अभावरूप वीतरागभावमें अवस्थित होता हूँ।।१०८।। __ इति भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यकृते प्रवचनसार परमागमे ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनो नाम द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः। १. तह ज. वृ. । २२. सहावेण ज.व. ३. १०८ वी गाथाके बाद ज. वृ. में निम्नलिखित गाथाकी व्याख्या अधिक मिलती है -- 'दसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं। अव्वाबाधरदाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं।।'
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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