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________________ १७८ कुन्दकुन्द-भारता अपने सहज शुद्ध स्वभावका ही कर्ता हो सकता हूँ, जड़ शरीरका कर्ता त्रिकालमें भी नहीं हो सकता, उसके कर्ता तो पुद्गल परमाणु हैं जिनके कि द्वारा शरीराकार स्कंधकी रचना हुई है। .... इस प्रकारके विचारोंसे श्री कुंदकुंद स्वामीने अपनी शुद्ध आत्माको अन्य द्रव्योंसे अत्यंत विभक्त सिद्ध किया है।।७० ।। आगे 'यदि आत्मा पुद्गल परमाणुओंमें शरीराकार परिणमन नहीं करता है तो फिर उनमें शरीररूप पर्यायकी उत्पत्ति किस प्रकार होती है' इस प्रश्नका उत्तर देते हैं -- अपदेसो परमाणू, पदेसमेत्तो य समयसद्दो जो। णिद्धो वा लुक्खो वा, दुपदेसादित्तमणुहवदि।।७१।। जो परमाणु द्वितीयादि प्रदेशोंसे रहित है, एक प्रदेशमात्र है और स्वयं शब्दसे रहित है, वह यतः स्निग्ध अथवा रूक्ष गुणका धारक होता है अतः द्विप्रदेशादिपनेका अनुभव करता है। यद्यपि परमाणु एकप्रदेशरूप है तो भी वह स्निग्ध अथवा रूक्ष गुणके कारण दूसरे परमाणुओंके साथ मिलकर स्कंध बन जाता है। ऐसा स्कंध दोप्रदेशीसे लेकर संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेशी तक होता है। जीवका शरीर भी ऐसे ही परमाणुओंके संयोगसे बना हुआ है। यथार्थमें पुद्गल परमाणुओंका पुंज ही शरीरका कर्ता है। यह जीव मोहके उदयसे व्यर्थ ही अपने आपको उसका कर्ता धर्ता मानकर रागी द्वेषी होता है।।७१।। आगे परमाणुका वह स्निग्ध अथवा रूक्ष गुण किस प्रकारका है यह कहते हैं -- एगुत्तरमेगादी, अणुस्स णिद्धत्तणं व लुक्खत्तं। परिणामादो भणिदं, जाव अणंतत्तमणुहवदि।।७२।। परमाणुमें जो स्निग्धता और रूक्षता रहती है उसमें अगुरुलघु गुणके कारण प्रत्येक समय परिणमन होता रहता है। इस परिणमनके कारण वह स्निग्धता और रूक्षता एकसे लेकर एक अंशकी वृद्धि होते होते अनंतपने तकका अनुभव करने लगती है ऐसा कहा गया है। स्निग्धता और रूक्षता पुद्गलके गुण हैं। प्रत्येक गुणमें अनंत अविभाज्य शक्ति के अंश होते हैं जिन्हें गुणांश या अविभागप्रतिच्छेद्य कहते हैं। अगुरुलघु गुणकी सहायता पाकर इन गुणांशोंमें प्रत्येक समय हानि वृद्धि होती रहती है। इस हानि वृद्धिको आगममें षड्गुणी हानिवृद्धि कहा है। उसके संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, अनंतभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि, संख्यातभागहानि, असंख्यातभागहानि, अनंतभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनंतगुणहानि इस प्रकार नाम भी हैं। स्निग्ध और रूक्ष गुणके अंशोंमें जब वृद्धि होने लगती है तब एक अंशसे लेकर बढ़ते-बढ़ते अनंत अंशतक बढ़ जाते हैं और जब उनमें हानि होने लगती है तब घटते-घटते एक अंश तक रह जाते हैं। परमाणुमें जब स्निग्धता और रूक्षताके अंश घटते-घटते एक अंश तक रह जाते हैं तब वे जघन्य गुणके
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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