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प्रवचनसार
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सभी पर्यायें विभाव पर्यायें कहलाती हैं अतएव त्याज्य हैं।।६० ।। अब जीवकी पूर्वोक्त पर्यायोंको दिखलाते हैं --
णरणारयतिरियसुरा, संठाणादीहिं अण्णहा जादा।
पज्जाया जीवाणं, 'उदयादु हि णामकम्मस्स।।६१।। संसारी जीवोंकी जो नर, नारक, तिर्यंच और देव पर्याय हैं वे नामकर्मके उदयसे संस्थान, संहनन आदिके द्वारा स्वभाव पर्यायसे भिन्न विभावरूप होते हैं।
जिस प्रकार एक ही अग्नि ईंधनके भेदसे अनेक प्रकारकी दिखती है उसी प्रकार एक ही आत्मा कर्मोदयवश अनेकरूप दिखायी देता है।।६१।।
आगे यद्यपि आत्मा अन्य द्रव्योंके साथ संकीर्ण है--मिला हुआ है तो भी उसका स्वरूपास्तित्व स्वपरके विभागका कारण है यह दिखलाते हैं --
तं सब्भावणिबद्धं, दव्वसहावं तिहा समक्खादं।
जाणदि जो सवियप्पं, ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ।।२।। जो पुरुष उस पूर्वकथित द्रव्यके स्वरूपास्तित्वसे युक्त द्रव्यगुण पर्याय अथवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यके भेदसे तीन प्रकार कहे हुए द्रव्यके स्वभावको भेदसहित जानता है वह शुद्धात्म द्रव्यसे भिन्न अन्य अचेतन द्रव्योंमें मोहको प्राप्त नहीं होता।
आत्मद्रव्यका स्वरूपास्तित्व ही उसे परपदार्थोंसे विविक्त सिद्ध करता है ।।६२ ।। आगे सब प्रकारसे आत्माको भिन्न करनेके लिए परद्रव्यके संयोगका कारण दिखलाते हैं -
अप्पा उवओगप्पा, उवओगो णाणदंसणं भणिदो।
सो हि सुहो असुहो वा, उवओगो अप्पणो हवदि।।३।। आत्मा उपयोगस्वरूप है, ज्ञान और दर्शन उपयोग कहे गये हैं और आत्माका वह उपयोग शुभ तथा अशुभ होता है।
आत्माके चैतन्यानुविधायी परिणामको उपयोग कहते हैं। उस उपयोगका परिणमन ज्ञान दर्शनके भेदसे दो प्रकारका होता है। सामान्य चेतनाके परिणामको दर्शनोपयोग और विशेष चेतनाके परिणामको ज्ञानोपयोग कहते हैं। आत्माका यह उपयोग अपने आपमें शुद्ध होता है, परंतु मोहका उदय उसे मलिन करता रहता है। जिस उपयोगके साथ मोहका उदय मिश्रित रहता है वह अशुद्धोपयोग कहलाता है और जो उपयोग मोहके उदयसे अमिश्रित रहता है वह शुद्धोपयोग कहलाता है। मोहका उदय असंख्यात प्रकारका होता है परंतु संक्षेपमें उसके शुभ-अशुभके भेदसे दो भेद माने जाते हैं। शुद्धोपयोग कर्मबंधका कारण नहीं
२. उययादि दि ज. वृ. ।