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प्रवचनसार
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स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इंद्रियप्राण, इसी प्रकार मनोबल, वचनबल और कायबल ये तीन प्राण, इसी प्रकार आयुप्राण और श्वासोच्छ्वास प्राण ये जीवोंके (चार अथवा दस) प्राण होते हैं। जिनके संयोगसे जीव जीवित अथवा मृत कहलावे उन्हें प्राण कहते हैं । ऐसे प्राण अभेदविवक्षा चार और भेदविवक्षासे दस होते हैं । । ५४ ।।
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अब जीव शब्दकी निरुक्तिपूर्वक यह बतलाते हैं कि प्राण जीवत्वके कारण हैं तथा पौद्गलिक
हैं-
पाणेहिं चदुहिं जीवदि, जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं ।
जीव पाणा पुण, पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता । । ५५ ।।
जो पूर्वोक्त चार प्राणोंसे वर्तमानमें जीवित है, आगे जीवित होगा और पहले जीवित था वह जीव है। वे सभी प्राण पुद्गल द्रव्यसे रचे गये हैं ।
'यः प्राणैः जीवति स जीवः' जो प्राणोंसे जीवित है वह जीव है, यह वर्तमान प्राणियोंकी अपेक्षा निरुक्ति है । 'यः प्राणै: जीविष्यति स जीवः' जो प्राणोंसे जीवित होगा वह जीव है, यह विग्रहगति में स्थित जीवोंकी अपेक्षा निरुक्ति है और 'यः प्राणैरजीवत्' जो प्राणोंसे जीवित था वह जीव है, यह मुक्त जीवों की जीवकी निरुक्ति है ऐसा समझना चाहिए। । ५५ ।।
अब प्राण पौद्गलिक हैं इस बातको स्वतंत्ररूपसे सिद्ध करते हैं
जीव पाणणिबद्ध, बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहिं ।
उवभुंजं कम्मफलं, बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं । । ५६।।
मोह आदि पौद्गलिक कर्मोंसे बँधा हुआ जीव पूर्वोक्त प्राणोंसे बद्ध होता है और उनके संबंधसे ही कर्मोंके फलको भोगता हुआ अन्य ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मोंसे बद्ध होता है।
यतः प्राणोंके कारण और कार्य दोनों ही पौद्गलिक हैं अतः प्राण भी पौद्गलिक ही हैं -- पुद्गलसे निष्पन्न हैं ऐसा जानना चाहिए ।। ५६ ।।
१.
अब प्राण पौद्गलिक कर्मके कारण हैं यह स्पष्ट करते हैं।
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पाणाबाधं जीवो, मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं ।
दि सो हवदि हि बंधो, णाणावरणादिकम्मेहिं । । ५७ ।।
यदि वह प्राणसंयुक्त जीव, मोह तथा राग-द्वेषरूप भावोंसे स्वजीव और परजीवोंके प्राणोंका घात
५४ वीं गाथाके बाद ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक व्याख्यात है.
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'पंचवि इंदियपाणा मणवचिकाया य तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होंति दस पाणा ।।'