SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अब प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं इसका विवेचन करते हैं लोगालोगेसु णभो, धम्माधम्मेहिं आददो लोगो । सेसे पडुच्च कालो, जीवा पुण पोग्गला सेसा ।। ४४ ।। आकाश, लोक और अलोक दोनोंमें व्याप्त है, धर्म और अधर्मके द्वारा लोक व्याप्त है अर्थात् ये दोनों समस्त लोकमें फैलकर रहे हैं। शेष रहे जीव, पुद्गल और काल सो ये तीनों विवक्षावश लोक में व्याप्त हैं। कालद्रव्य स्वयं एकप्रदेशी है इसलिए लोकके एक प्रदेशमें रहता है परंतु ऐसे कालद्रव्य गणनामें असंख्यात हैं और लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर रहते हैं इसलिए अनेक कालाणुओं की अपेक्षा काल द्रव्य समस्त लोकमें स्थित है। एक जीव द्रव्यके असंख्यात प्रदेश हैं और संकोच - विस्ताररूप स्वभाव होनेसे वे छोटे-बड़े शरीरके अनुरूप लोकके असंख्यातवें भागमें अवस्थित रहते हैं। लोकपूरण समुद्घातके समय लोकमें भी व्याप्त हो जाते हैं । परंतु वह अवस्था किन्हीं जीवोंके समयमात्रके लिए होती है। अधिकांश कल शरीर प्रमाणके अनुरूप लोकाकाशमें ही रहकर बीतता है। यह एक जीव द्रव्यकी अपेक्षा विचार हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा जीव द्रव्य समस्त लोकमें व्याप्त है। पुद्गल द्रव्यका अवस्थान लोकके एक प्रदेशसे लेकर समस्त लोकमें है। पुद्गलोंमें वस्तुतः द्रव्य संज्ञा परमाणुओंको है। ऐसे परमाणुरूप पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं। परमाणु एकप्रदेशी है इसलिए वह लोकके एक ही प्रदेशमें स्थित रहता है परंतु जब वह परमाणु अपने स्निग्ध और रूक्षगुणके कारण अन्य परमाणुओंके साथ मिलकर स्कंध होता है लोकके एकसे अधिक प्रदेशोंको व्याप्त करने लगता है। ऐसा नियम नहीं है कि लोकके एक प्रदेशमें एक ही परमाणु रहे । यदि ऐसा नियम मान लिया जावे तो लोकके असंख्यात प्रदेशोंमें असंख्यातसे अधिक परमाणु स्थान नहीं पा सकेंगे। नियम ऐसा है कि परमाणु एक ही प्रदेशमें रहता है, परंतु उस एक प्रदेशमें संख्यात असंख्यात अनंत परमाणुओं से निर्मित स्कंध भी स्थित हो सकते हैं। पुद्गल परमाणुओंमें परस्पर अवगाहन देनेकी सामर्थ्य होनेके कारण उक्त मान्यतामें कुछ भी आपत्ति नहीं आती। इस प्रकार स्कंधकी अपेक्षा अथवा अनंतानंत परमाणुओंकी अपेक्षा पुद्गल द्रव्य भी समस्त लोकमें व्याप्त होकर स्थित है। सारांश यह हुआ कि काल, जीव और पुद्गल ये तीन द्रव्य एक द्रव्यकी अपेक्षा लोकके एक देशमें और अनेक द्रव्यकी अपेक्षा सर्व लोकमें स्थित हैं ।। ४४ ।। आगे इन द्रव्योंमें प्रदेशत्व और अप्रदेशत्वकी संभवता दिखाते हैं. देसा, तधप्पदेसा हवंति सेसाणं । अपदेसो परमाणू, तेण पदेसुब्भवो भणिदो । । ४५ ।। -- १६९ १-२-३ जह ते णहप्पदेसा तहप्पदेसा ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy