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कुन्दकुन्द-भारता द्रव्यके दो भेद हैं -- जीव और अजीव। इनमेंसे जीव चेतनामय और उपयोगमय है तथा पुद्गल द्रव्यको आदि लेकर पाँच प्रकारका अजीव चेतनासे रहित है।
____ पदार्थको सामान्य-विशेषरूपसे जाननेकी जीवकी जो शक्ति है उसे चेतना कहते हैं और उस शक्तिका ज्ञान-दर्शनरूप जो व्यापार है उसे उपयोग कहते हैं। ज्ञान और दर्शनके भेदसे चेतना तथा उपयोग दोनोंके दो दो भेद हैं। यह द्विविध चेतना और द्विविध उपयोग जिसमें पाया जावे उसे जीव द्रव्य कहते हैं और जिसमें उक्त चेतना तथा तन्मूलक उपयोगका अभाव हो उसे अजीव द्रव्य कहते हैं। अजीव द्रव्यके पाँच भेद हैं -- १. पुद्गल, २. धर्म, ३. अधर्म, ४. आकाश और ५. काल।।३५ ।। आगे लोक और अलोकके भेदसे द्रव्यके दो भेद दिखलाते हैं --
पुग्गलजीवणिबद्धो, धम्माधम्मत्थिकायकालड्डो।
वट्टदि आयासे जो, लोगो सो सव्वकाले दु।।३६।। अनंत आकाशमें जो क्षेत्र पुद्गल तथा जीवसे संयुक्त और धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय एवं कालसे सहित हो वह सर्वकाल -- अतीत, अनागत तथा वर्तमान इन तीनों कालोंमें लोक कहा जाता है।
इस गाथामें लोकका लक्षण कहा गया है अतः पारिशेष्यात् अलोकका लक्षण अपने आप प्रतिफलित होता है। जहाँ केवल आकाश ही आकाश हो उसे अलोक कहते हैं।।३६।। आगे क्रिया और भावकी अपेक्षा द्रव्योंमें विशेषता बतलाते हैं --
उप्पादट्ठिदिभंगा, पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स।
परिणामा' 'जायंते, संघादादो व भेदादो।।३७।। पुद्गल और जीव स्वरूप लोकके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिणामसे -- एक समयवर्ती अर्थपर्यायसे, संघातसे -- मिलनेसे तथा भेदसे -- बिछुड़नेसे होते हैं।
संसारके प्रत्येक पदार्थों में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप परिणमन होता रहता है। वह परिणमन किन्हींमें भावस्वरूप होता है और किन्हींमें क्रिया तथा भाव दोनोंरूप होता है। अगुरुलघु गुणके निमित्तसे प्रत्येक पदार्थमें जो समय समय पर शक्तिके अंशोंका परिवर्तन होता है उसे भाव कहते हैं और प्रदेश परिस्पंदात्मक जो हलनचलन है उसे क्रिया कहते हैं। जीव और पुद्गल द्रव्योंमें सदा भावरूप ही परिणमन होता है। जीवमें भी संसारी जीवके ही क्रियारूप परिणमन होता है मुक्त जीवके मुक्त होनेके प्रथम समयको छोड़कर अन्य अनंतकाल तक भावरूप ही परिणमन होता है। इस प्रकार क्रिया और भावकी अपेक्षा जीवादि द्रव्योंमें विशेषता है।।३७ ।।
१. परिणामादो।
२. जायदि ज. वृ. ।