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________________ प्रवचनसार १६१ दव्वट्ठिएण सव्वं, दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो। हवदि य अण्णमणण्णं, तक्कालं तम्मयत्तादो।।२२।। द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षासे सभी द्रव्य -- द्रव्यकी समस्त पर्यायें अन्य नहीं हैं और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे अन्य हैं, क्योंकि उस समय वे उसी पर्यायरूप हो जाती हैं। द्रव्यार्थिक नय अन्वयग्राही है और पर्यायार्थिक नय व्यतिरेकग्राही। द्रव्यार्थिक नय कालक्रमसे होनेवाली अनंत पर्यायोंमें अन्वयको ग्रहण करता है और इसलिए उसकी अपेक्षासे उन समस्त पर्यायोंमें अन्यत्वभाव सिद्ध होता है और पर्यायार्थिक नय कालक्रमसे होनेवाली अनंत पर्यायोंमें व्यतिरेकको ग्रहण करता है इसलिए उसकी अपेक्षा उन समस्त पर्यायोंमें अन्यत्व भाव सिद्ध होता है। सारांश यह है कि नय विवक्षासे एक ही द्रव्यमें दो परस्परविरोधी भाव सिद्ध हो जाते हैं।।२२।। अब सब प्रकारका विरोध दूर करनेवाली सप्तभंगी वाणीका अवतार करते हैं -- अत्थित्ति य णत्थित्ति य, हवदि अवत्तव्यमिदि पुणो दव्वं। पज्जाएण दु केणवि, तदुभयमादिट्ठमण्णं वा।।२३।। द्रव्य किसी एक पर्यायसे अस्तिरूप है, किसी एक पर्यायकी अपेक्षा नास्तिरूप है, किसी एक पर्यायसे अवक्तव्य है, किसी एक पर्यायसे अस्तिनास्तिरूप है और किन्हीं अन्य पर्यायोंसे अन्य तीन भंगस्वरूप कहा गया है। संसारके किसी भी पदार्थमें मुख्य रूपसे तीन धर्म पाये जाते हैं -- एक विधि, दूसरा निषेध और तीसरा अवक्तव्य। इन धर्मोंका पृथक् पृथक् रूपसे अथवा अन्य धर्मों के साथ संयुक्त रूपसे कथन किया जाता है तब सात भंग हो जाते हैं। ये भंग किसी एक पर्यायकी अपेक्षासे होते हैं, अतः उनके साथ कथंचित् अर्थको सूचित करनेवाला 'स्यात्' शब्द लगाया जाता है। सात भंग इस प्रकार हैं -- १. स्यादस्ति, २. स्यान्नास्ति, ३. स्यादवक्तव्य, ४. स्यादस्तिनास्ति, ५. स्यादस्ति अवक्तव्य, ६. स्यान्नास्ति अवक्तव्य, और ७. स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य। इसका खुलासा इस प्रकार है -- १. स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव इस प्रकार स्वचतुष्टकी अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है। २. परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य नास्तिरूप है। यह ३. एक कालमें 'अस्तिनास्ति' नहीं कह सकते इसलिए अवक्तव्य है। ४. क्रमसे वचनद्वारा अस्तिनास्ति धर्मोंका कथन हो सकता है इसलिए अस्तिनास्तिरूप है। ५. 'अस्ति' धर्मको जब अवक्तव्यके साथ मिलाकर कहते हैं तब द्रव्य अस्ति अवक्तव्यरूप है। ६. 'नास्ति' धर्मको जब अवक्तव्यके साथ मिलाकर कहते हैं तब द्रव्य नास्ति अवक्तव्यरूप है। ७. और, जब कालक्रमसे 'अस्ति"नास्ति' धर्मको अवक्तव्यके साथ मिलाकर कहते हैं तब द्रव्य
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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