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प्रवचनसार
आगे जिनेंद्रप्रणीत पदार्थों की श्रद्धाके बिना धर्मका लाभ नहीं हो सकता यह कहते हैं --
सत्तासंबद्धेदे, सविसेसे जो हि णेव सामण्णे।
सद्दहदि ण सो समणो, तत्तो धम्मो णेव संभवदि।।११।। जो पुरुष श्रमण अवस्थामें स्थित होता हुआ सत्तासे संबद्ध अर्थात् सामान्य गुणोंसे युक्त और अपने अपने विशेष गुणोंसे सहित इन जीव-पुद्गलादि द्रव्योंका श्रद्धान नहीं करता है वह श्रमण नहीं है -- साधु नहीं है और उस पुरुषके शुद्धोपयोगरूप धर्मका होना संभव नहीं है।।९१ ।। आगे मोहादिको नष्ट करनेवाला श्रमण ही धर्म है ऐसा निरूपण करते हैं --
जो णिहिदमोहदिट्ठी, आगमकुसलो विरागचरियम्मि।
अब्भुट्टिदो महप्पा, धम्मोत्ति विसेसिदो समणो।।१२।। जिसने दर्शनमोहका नाश कर दिया है, जो आगममें कुशल है, वीतराग चारित्रमें सावधान है और जिसका आत्मा रत्नत्रयके सद्भावसे महान है ऐसा श्रमण -- साधु धर्म है ऐसा कहा गया है।
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा गया है। यहाँ उनके आधारभूत श्रमणको आधार-आधेयके रूपमें अभेदविवक्षासे धर्म कह दिया है।।९२।।'
इति भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यकृते प्रवचनसारपरमागमे ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापनो नाम प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः।
१ इसके आगे जयसेन वृत्तिमें निम्नांकित २ गाथाएँ अधिक व्याख्यात हैं --
'जो तं दिट्ठा तुट्ठो, अब्भुट्टित्ता करेदि सक्कारं। वंदणनमंसणादिहि, तत्तो सो धम्ममादियदि।।' 'तेण णरा तिरिच्छा, देविं वा माणसिं गदिं पय्या। विहविस्सरियेहिं सया, संपुण्णमणोरहा होति।।'