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कुन्दकुन्द-भारती करते हैं।
___ शुभोपयोगका उत्तम फल देवोंमें इंद्रको और मनुष्योंमें चक्रवर्तीको ही प्राप्त होता है, परंतु उस फलसे वे अपने शरीरको ही पुष्ट करते हैं, न कि आत्माको। वे वास्तवमें दुःखी ही रहते हैं, परंतु बाह्यमें सुखियोंके समान मालूम होते हैं।।७३।। आगे शुभोपयोगजन्य पुण्य भी दुःखका कारण है यह प्रकट करते हैं --
जदि संति हि पुण्णाणि य, परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि।
जणयंति विसयतण्हं, जीवाणं देवदंताणं।।७४।। यह ठीक है कि शुभोपयोगरूप परिणामोंसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके पुण्य विद्यमान रहते हैं परंतु वे देवों तक समस्त जीवोंकी विषयतृष्णा ही उत्पन्न करते हैं।
शुभोपयोगके फलस्वरूप अनेक भोगोपभोगोंकी सामग्री उपलब्ध होती है उससे समस्त जीवोंकी विषयतृष्णा ही बढ़ती है इसलिए शुभोपयोगको अच्छा कैसे कहा जा सकता है? ।।७४ ।। आगे पुण्यको दुःखका बीज प्रकट करते हैं --
ते पुण उदिण्णतण्हा, दुहिदा तण्हाहि विसयसोक्खाणि।
इच्छंति अणुहवंति य, आमरणं दुक्खसंतत्ता।।७५।। फिर, जिन्हें तृष्णा उत्पन्न हुई है ऐसे समस्त संसारी जीव तृष्णाओंसे दुःखी और दुःखोंसे संतप्त होते हुए विषयजन्य सुखोंकी इच्छा करते हैं और मरणपर्यंत उन्हींका अनुभव करते रहते हैं।
विषयजन्य सुखोंसे तृष्णा बढ़ती है और तृष्णा ही दुःखका प्रमुख कारण है। अतः शुभोपयोग के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले विषयसुख हेय हैं -- छोड़नेयोग्य हैं।।७५ ।। आगे फिर भी पुण्यजनित सुखको बहुत प्रकारसे दुःखरूप वर्णन करते हैं --
सपरं बाधासहिदं', विच्छिण्णं बंधकारणं विसयं।
जं इंदियेहिं लद्धं, तं सोक्खं दुक्खमेव तधा।। ७६।। शुभोपयोगसे पुण्य होता है और पुण्यसे इंद्रियजन्य सुख मिलता है परंतु यथार्थमें विचार करनेपर वह इंद्रियजन्य सुख दुःखरूप ही मालूम होता है।।७६।।। आगे पुण्य और पापमें समानता है यह निश्चय करते हुए इस कथनका उपसंहार करते हैं -
ण हि मण्णदि जो एवं, णत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं, संसारं मोहसंछण्णो।।७७।।
१. सहियं ज. वृ. । २. तहा ज. वृ. ।