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भव्य ! तू पूर्वोक्त मोक्षमार्गमें आत्माको लगा, उसीका ध्यान कर, उसीका चिंतन कर, उसीमें
निरंतर विहार कर । अन्य द्रव्योंमें विहार मत कर । । ४१२ ।।
समयसार
जो
बहुत
जाना है । । ४१३ ।।
हैं-
कहते हैं कि जो बाह्य लिंगोंमें ममताबुद्धि रखते हैं वे समयसारको नहीं जानते हैं -- 'पाखंडीलिंगेसु व, गिहलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ।
कुव्वंति जे ममत्तं, तेहिं ण णायं समयसारं । । ४१३।।
प्रकारके पाखंडी लिंगों और गृहस्थलिंगोंमें ममता करते हैं उन्होंने समयसारको नहीं
आगे कहते हैं कि व्यवहार नय दोनों लिंगोंको मोक्षमार्ग बतलाता है, परंतु निश्चय नय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता --
ववहारिओ पुण णओ, दोण्णि वि लिंगाणि भणइ मोक्खपते । णिच्छयणओ ण इच्छइ, मोक्खपहे सव्वलिंगाणि । । ४१४ । ।
व्यवहार नय तो मुनि और श्रावकके भेदसे दोनों ही प्रकारके लिंगोंको मोक्षमार्ग कहता है, परंतु निश्चय नय सभी लिंगोंको मोक्षमार्गमें इष्ट नहीं करता । । ४१५ ।।
आगे श्री कुंदकुंदाचार्य देव समयप्राभृत ग्रंथको पूर्ण करते
'हुए
'उसके फलकी
'सूचना' करते
जो समयपाहुडमिणं, पडिहूणं' अत्थतच्चदो गाउ अत्थे ठाही 'चेया', सो होही उत्तमं सोक्खं । । ४१५ ।।
भव्यपुरुष इस समप्राभृतको पढ़कर तथा अर्थ और तत्त्वको जानकर इसके अर्थमें स्थित रहेगा वह उत्तम सुखस्वरूप होगा । । ४१५ ।।
इस प्रकार सर्वविशुद्ध ज्ञानका प्ररूपक नवम अंक पूर्ण हुआ ।
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१. पाखंडिय ज. वृ. । २. णादं ज. वृ. । ३. णेच्छदि ज. वृ. । ४. मुक्ख पहे ज. वृ. । ५. पठिदूणय ज. वृ. । ६. णादु ज. वृ. । ७. ठाहिदि ज. वृ. । ८. चेदा ज. वृ. । ९. पावदि ज. वृ. ।