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________________ समयसार 1 कम्मं जं सुहमसुहं, जम्हि य भावम्हि वज्झइ भविस्सं । तत्तो णियत्तए जो, सो पच्चक्खाणं हवइ चेया । । ३८४ ।। सुमसुहमुदिणं, पडि य अणेयवित्थरविसेसं । तं दोसं जो चेयइ, सो खलु आलोयणं चेया' ।। ३८५ ।। 'णिच्चं पच्चक्खाणं, कुव्वइ णिच्चं य पडिक्कमदि जो । णिच्चं आलोचेयइ, सो हु चरित्तं हवइ चेया ।।३८६ ।। पूर्वकालमें किये हुए शुभाशुभ अनेक विस्तारविशेषको लिये हुए जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं उनसे जो जीव अपने आत्माको छुड़ाता है वह प्रतिक्रमण है । जिस भावके होनेपर जो शुभाशुभ कर्म भविष्य में बँधनेवाले हैं उनसे जो ज्ञानी निवृत्त होता है वह प्रत्याख्यान है। अनेक विस्तारविशेषको लिये जो शुभाशुभ कर्म वर्तमानमें उदयको प्राप्त है दोषरूप उस कर्मको जो ज्ञानी अनुभवता है -- उससे स्वामित्वभावको छोड़ता है वह निश्चयसे आलोचना है। तथा इस प्रकार जो आत्मा नित्य प्रतिक्रमण करता है, नित्य प्रत्याख्यान करता है और नित्य आलोचना करता है वह निश्चयसे चारित्र है । । ३८३-३८६ ।। १२१ आगे जो कर्मफलको अपना तथा अपना किया हुआ मानता है वह अष्टविध कर्मोंका बंध करता है यह कहते हैं वेदंतो कम्मफलं, अप्पाणं कुणइ जो दु कम्मफलं । तं व बंध, बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं । । ३८७ ।। वेदतो कम्मफलं, मए कयं मुणइ जो दु कम्मफलं । सो तं पुणविबंध बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं । । ३८८ ।। वेदतो कम्मफलं, सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तं पुणोवि बंध, बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं । । ३८९ ।। जो जीव कर्मफलका वेदन करता हुआ कर्मफलको आपरूप करता है - अपना मानता है वह दुःखके बीज स्वरूप आठ प्रकारके कर्मको फिर भी बाँधता है। कर्मफलका वेदन करता हुआ जो जीव कर्मफलको अपना किया हुआ मानता है वह दुःखके बीज स्वरूप आठ प्रकारके कर्मको फिर भी बाँधता है। जो जीव कर्मफलका वेदन करता हुआ सुखी दुःखी होता है वह दुःखके बीज स्वरूप आठ प्रकारके कर्मको फिर भी बाँधता है । । ३८७-३८९ ।। आगे ज्ञान ज्ञेयसे पृथक् है यह कहते है - -- १. चेदा। २. णिच्चं पच्चक्खीणं कुव्वदि णिच्चं पि दो पडिक्कमदि । ३. णिच्चं आलोचेदिय ४. चेदा ज. वृ.
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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