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समयसार
दर्शन ज्ञान चारित्र अचेतन कर्ममें कुछ भी नहीं हैं इसलिए आत्मा उन कर्मों में क्या घात करे? दर्शन ज्ञान चारित्र अचेतन कायमें कुछ भी नहीं हैं इसलिए आत्मा उन कायोंमें क्या घात करे? घात, ज्ञान दर्शन तथा चारित्रका कहा गया है, वहाँ पुद्गल द्रव्यका तो कुछ भी घात नहीं कहा। जो कुछ जीवके गुण हैं वे निश्चयकर परद्रव्योंमें नहीं हैं। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टिके विषयोंमें राग ही नहीं है। राग द्वेष मोह ये सब जीवके ही अभिन्न परिणाम हैं इसलिए रागादिक शब्दादि विषयोंमें नहीं हैं।।३६६-३७१ । । आगे कहते हैं कि सभी द्रव्य स्वभावसे ही उपजते हैं --
अण्णदविएण अण्णदवियस्स ण कीरए' गुणुप्पाओ
तम्हा उ सव्वदव्वा, उप्पंज्जंते सहावेण।।३७२।। अन्य द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यका गुणोत्पाद नहीं किया जाता इसलिए यह सिद्धांत है कि सभी द्रव्य अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। ।३७२।।
आगे इस बातको प्रकट करते हैं कि जो स्पर्शादि विषय हैं वे पुद्गलरूप परिणमन करते हैं। आत्मासे 'तुम मुझे ग्रहण करो या न करो' ऐसा कुछ भी नहीं कहते। आत्मा स्वयं ही अज्ञानी तथा मोही हुआ उन्हें ग्रहण करता है --
णिंदियसंथुयवयणाणि, पोग्गला परिणमंति बहुयाणि। ताणि सुणिऊण रूसदि, तूसदि य अहं पुणो भणिदो।।३७३।। पोग्गलदव्वं “सद्दत्तपरिणयं तस्स जई गुणो अण्णो। तम्हा ण तुमं भणिओ, किंचिवि किं "रूससि अबुद्धो।।३७४ ।। असुहो सुहो व सद्दो, ण तं भणइ सुणसु मंति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं, सोयविसयमागयं सदं ।।३७५।। असुहं सुहं च रूवं, ण तं भणइ पिच्छ मंति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं, चक्खुविसयमागयं रूवं ।।३७६।। असुहो सुहो व गंधो, ण तं भणइ जिग्घ मंति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं, घाणविसयमागयं गंधं ।।३७७।। असुहो सुहो व रसो, ण तं भणइ रसय मंति सो चेव। ण य एइ विणिग्गहिउं, रसणविसयमागयं तु रसं।।३७८ ।।
१. कीरदे गुणविघादो ज. वृ. । २. दु ज. वृ. । ३. णिदिदसंथुद। ४. बहुगाणि। ५. सद्दत्तहपरिणदं । ६. जदि । ७. रूससे। ८. अबुहो।