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________________ समयसार जो पुरुष चोरी आदि अपराधोंको करता है वह इस प्रकार शंकित होकर घूमता है कि मैं मनुष्योंमें विचरण करता हुआ 'चोर है' यह समझकर बाँधा न जाऊँ? इसके विपरीत जो अपराध नहीं करता वह निःशंक होकर देशमें घूमता है, उसे बँधनेकी चिंता कभी भी उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार यदि मैं अपराध सहित हूँ तो बँधूंगा इस शंकासे युक्त आत्मा रहता है। और यदि मैं निरपराध हूँ तो निःशंक हूँ और कर्मोंसे बंधको प्राप्त नहीं होऊँगा । । ३०१-३०३ ।। आगे यह अपराध क्या है? इसका उत्तर देते हैं -- संसिद्धिराधसिद्धं, साधियमाराधियं च एयट्ठे । [SFIET अवगयराधो जो खलु, चेया सो होइ अवराधो ।। ३०४ ।। जो पुणिरवराधी, चेया णिस्संकिओ उ सो होइ । आराहणए णिच्चं, वट्टेइ अहं ति जाणंतो ।। ३०५ ।। संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित ये सब एकार्थ हैं। इसलिए जो आत्मा राधसे रहित हो वह अपराध है। और जो आत्मा निरपराध है -- अपराधसे रहित है वह निःशंकित है तथा 'मैं हूँ' इस प्रकार जानता हुआ निरंतर आराधनासे युक्त रहता है। भावार्थ -- शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनको राध कहते हैं। जिसके यह नहीं है वह आत्मा सापराध है और जिसके यह हो वह निरपराध है । सापराध पुरुषके बंधकी शंका संभव है इसलिए वह अनाराधक है और निरपराध पुरुष निःशंक हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है उस समय बंधकी चिंता नहीं होती। वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा तपका एकभावरूप जो निश्चय आराधना है उसका आराधक होता है ।। ३०४-३०५ ।। -- २०७ आगे कोई प्रश्न करता है कि शुद्ध आत्माकी उपासनासे क्या फल है? क्योंकि प्रतिक्रमणादिके द्वारा ही सापराध आत्मा शुद्ध हो जाती है। अप्रतिक्रमण आदिसे अपराध दूर नहीं होता इसलिए उन्हें अन्यत्र विषकुंभ कहा है और प्रतिक्रमण आदिसे अपराध दूर हो जाता है इसलिए अमृतकुंभ कहा है। इसका उत्तर कहते हैं 'साधिदमाराधिकं च एयट्ठो । अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराहो' ज. वृ । १. २. यह गाथा ज. वृ. में नहीं है। ३. उक्तं च व्यवहारसूत्रे आ. वृ., तथा चोक्ते चिरन्तनप्रायश्चित्तग्रन्थे - अपडिक्कमणं अपरिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिदा अगरुहा सोहीय विसकुंभो । । १ । । पडिकमणं पडिसरणं परिहरणं धारणा णियत्ती य । निंदा गरुहा सोही अटट्ठविहो अमयकुंभो दु ।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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