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जिस प्रकार बंधनसे बँधा हुआ पुरुष बंधनोंको छेदकर मोक्षको पाता है उसी प्रकार जीव कर्मबंधनोंको छेदकर मोक्षको पाता है।।२९२।।
आगे क्या यही मोक्षका हेतु है या अन्य कुछ भी? इसका उत्तर देते हैं -- बंधाणं च सहावं, वियाणिओ अप्पणो सहावं च।
__ बंधेसु जो विरज्जदि, सो कम्मविमोक्खणं कुणई।।२९३ ।।
जो बंधोंका स्वभाव और आत्माका स्वभाव जानकर बंधोंमें विरक्त होता है वह कर्मोंका मोक्ष करता है।।२९३ ।। आगे पूछते हैं कि आत्मा और बंध पृथक् पृथक् किससे किये जाते हैं --
जीवो बंधो य तहा, छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहिं।
पण्णाछेदणएण 'उ, छिण्णा णाणत्तमावण्णा।।२९४ ।। जीव और बंध ये दोनों अपने-अपने नियम लक्षणोंसे बुद्धिरूपी छैनीके द्वारा इस प्रकार छेदे जाते हैं कि वे नानापनेको प्राप्त हो जाते हैं।।२९४ ।।
आगे कोई पूछता है कि आत्मा और बंधको द्विधा करके क्या करना चाहिए? इसका उत्तर कहते हैं --
जीवो बंधो य तहा, छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं। ___बंधो छेएवव्वो, सुद्धो अप्पा य घेत्तव्वो।।२९५ ।।
अपने अपने निश्चित लक्षणोंके द्वारा जीव और बंधको उस तरह भिन्न करना चाहिए जिस तरह कि बंध छिद जावे और शुद्ध आत्माका ग्रहण हो जावे।।२९५ ।।
__ आगे कहते हैं कि आत्मा और बंधको द्विधा करनेका यही प्रयोजन है कि बंधको छोड़कर शुद्ध आत्माका ग्रहण हो जावे --
कह सो घिप्पई अप्पा, पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा।
जह पण्णाइ विहत्तो, तह पण्णाएव घित्तव्यो।।२९६।। शिष्य पूछता है कि उस आत्माका ग्रहण किस प्रकार होता है? आचार्य उत्तर देते हैं कि प्रज्ञाके द्वारा उस आत्माका ग्रहण होता है। जिस प्रकार प्रज्ञासे उसे पहले भिन्न किया था उसी प्रकार प्रज्ञासे ही उसे ग्रहण करना चाहिए।।२९६।।
आगे पूछते हैं कि प्रज्ञाके द्वारा आत्माका ग्रहण किस प्रकार करना चाहिए? --
१. जो ण रज्जदि ज. वृ.। २. कुणदि ज. वृ. । ३. दु ज. वृ.। ४. छेदेदव्वो ज. वृ. । ५. धिप्पदि ज. वृ.। ६. धिप्पदे ज.व.।