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समयसार
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'जावं अपडिक्कमणं, अपच्चखाणं च दव्वभावाणं।
कुव्वइ आदा तावं, कत्ता सो होइ णायव्वो।।२८५।। जिस प्रकार अप्रतिक्रमण दो प्रकारका है उसी प्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका जानना चाहिए। इस उपदेशसे आत्मा अकारक कहा है। अप्रतिक्रमण दो प्रकार है -- एक द्रव्यमें दूसरा भावमें। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका है -- एक द्रव्यमें दूसरा भावमें। इस उपदेशसे आत्मा अकारक है। जब आत्मा द्रव्य और भाव में अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान करता है तबतक वह आत्मा कर्ता होता रहता है यह जानना चाहिए।।२८३-२८५ ।। आगे द्रव्य और भावमें जो निमित्त नैमित्तिकपना है उसे उदाहरणद्वारा स्पष्ट करते हैं --
३आधाकम्माईया, पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुव्वइ णाणी, परदव्वगुणा उ जे णिच्चं ।।२८६।। आधाकम्मं उद्देसियं, च पुग्गलसयं इमं दव्वं ।
कह तं मम होइ कयं, जं णिच्चमचेयणं उत्तं ।।२८७।। अध:कको आदि लेकर पुद्गल द्रव्यके जो दोष हैं उन्हें ज्ञानी कैसे कर सकता है? क्योंकि ये निरंतर परद्रव्यके गुण हैं। और यह जो अध:कर्म तथा उद्देश्यसे उत्पन्न हुआ पुद्गल द्रव्य है वह मेरा कैसे हो सकता है? वह तो निरंतर अचेतन कहा गया है।
भावार्थ -- जो आहार पापकर्मके द्वारा उत्पन्न हो उसे अधःकर्मनिष्पन्न कहते हैं और जो आहार किसीके निमित्त बना हो उसे औदेशिक कहते हैं। मुनिधर्ममें उक्त दोनों प्रकारके आहार दोषपूर्ण माने गये हैं। ऐसे आहारको जो सेवन करता है उसके वैसे ही भाव होते हैं, क्योंकि लोकमें प्रसिद्ध है कि जो जैसा अन्न खाता है उसकी बुद्धि वैसी ही होती है। इस प्रकार द्रव्य और भावका निमित्त नैमित्तिकपना जानना चाहिए। द्रव्यकर्म निमित्त हैं और उसके उदयमें होनेवाले रागादि भाव नैमित्तिक हैं। अज्ञानी जीव परद्रव्यको ग्रहण करता है -- उसे अपना मानता है, इसलिए उसके रागादिभाव होते हैं। उनका वह कर्ता भी होता है और उसके फलस्वरूप कर्मका बंध भी करता है, परंतु ज्ञानी जीव किसी परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता -- अपना नहीं मानता। इसलिए उसके तद्विषयक रागादिभाव उत्पन्न नहीं होते। उनका यह कर्ता नहीं होता और फलस्वरूप नूतन कर्मोंका बंध नहीं करता।।२८६-२८७।।
इस प्रकार बंधाधिकार पूर्ण हुआ।
१.जाव ण पच्चक्खाणं अपडिक्कमणं तु दव्वभावाणं २. कुव्वदि आदा तावदु कत्ता सो होदि णादव्वो। ज. वृ. ।
आधाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कहमणुमण्णदि अण्णेण कीरमाणा परस्स गुणा।। आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गल मयं इमं सव्वं । कह तं मम कारविदं जं णिच्चं मचेदणं वुत्तं ।। ज. वृ.