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________________ ९८ कुन्दकुन्द-भारती अथवा पुण्यका बंध करनेवाला होता है। मैं सब जीवोंको मारता हूँ अथवा जीवित करता हूँ यह जो तेरा अध्यवसाय है वही पापका बंध करनेवाला अथवा पुण्यका बंध करनेवाला होता है।।२६०-२६१ ।। आगे हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है यह कहते हैं -- ___ अज्झवसिदेण बंधो, सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स।।२६२।। अध्यवसायसे बंध होता है, जीवोंको मारो अथवा मत मारो। यह निश्चय नयकी अपेक्षा जीवोंके बंधका संक्षेप है।।२६२।। आगे हिंसाके अध्यवसायके समान असत्य वचन आदिका अध्यवसाय भी बंधका कारण है यह कहते हैं -- एवमलिये अदत्ते, अबंभचेरे परिग्गहे चेव। कीरइ अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झए पावं ।।२६३।। तहवि य सच्चे दत्ते, बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव। कीरइ अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झए पुण्णं ।।२६४।। इसी प्रकार असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहके विषयमें जो अध्यवसाय किया जाता है उससे पापका बंध होता है तथा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहपनेके विषयमें जो अध्यवसाय किया जाता है उससे पुण्यका बंध होता है।।२६३-२६४ ।। आगे कहते हैं कि बाह्य वस्तु बंधका कारण नहीं है -- वत्थु पडुच्च जं पुण, अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं। ___ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि।।२६५।। जीवोंके जो अध्यवसान है वह वस्तुके अवलंबनसे होता है, वस्तुसे बंध नहीं होता है। किंतु अध्यवसानसे बंध होता है।।२६५ ।। आगे जीव जैसा अध्यवसाय करता है वैसी कार्यकी परिणति नहीं होती यह कहते हैं -- दुक्खिदसुहिदे जीवे, करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई, णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।।२६६।। मैं जीवोंको दुःखी-सुखी करता हूँ, बँधाता हूँ अथवा छुड़ाता हूँ यह जो तेरी मूढ़ बुद्धि है वह निरर्थक है, इसलिए निश्चयसे मिथ्या है।।२६६ ।। १. मारेहि ज. वृ.। २. मारेहि ज. वृ.।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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