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जो वेदन करता है और जिसका वेदन किया जाता है वे दोनों भाव समय समयमें नष्ट होते रहते हैं। अर्थात् वेद्य-वेदक भाव क्रमसे होते हैं, अतः एक समयसे अधिक देरतक अवस्थित नहीं रहते। ज्ञानी जीव उन दोनों भावोंको जाननेवाला ही है, वह उनकी कभी भी आकांक्षा नहीं करता है।।२१६ ।। आगे इस प्रकारके सभी उपभोगोंसे ज्ञानी विरक्त रहता है यह कहते हैं --
बंधुवभोगणिमित्ते, अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स।
संसारदेहविसएसु, णेव उप्पज्जदे रागो।।२१७ ।। बंध और उपभोगके निमित्तभूत, संसार और शरीरविषयक अध्यवसानके जो उदय हैं उनमें ज्ञानी जीवके राग उत्पन्न नहीं ही होता है।।२१८ ।। आगे ज्ञानी कर्मबंधसे रहित होता है यह कहते हैं --
णाणी रागप्पजहो, सव्वदब्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि रजएण दु, कद्दममझे जहा कणयं ।।२१८ ।। अण्णाणी पुण रत्तो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममझे जहा लोहं ।।२१९ ।। १ ज्ञानी सब द्रव्योंमें रागका छोड़नेवाला है, इसलिए कर्मके मध्यगत होनेपर भी कर्मरूपी रजसे उस प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि कीचड़के बीचमें पड़ा हुआ सोना। परंतु अज्ञानी सब द्रव्योंमें रागी है अतः कर्मोंके मध्यगत होता हुआ कर्मरूपी रजसे उस प्रकार लिपा होता है जिस प्रकार कि कीचड़के बीचमें पड़ा हुआ लोहा।।२१८-२१९ । । । आगे इसी बातको शंखके दृष्टांतसे स्पष्ट करते हैं --
भुंजंतस्सवि विविहे, सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दब्वे। संखस्स सेदभावो, णवि सक्कदि किण्णगो काउं।।२२० ।। तह णाणिस्स वि विविहे, सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दब्वे।
भुजंतस्सवि णाणं, ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।।२२१।। १. २१९ वीं गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नलिखित श्लोकोंकी व्याख्या अधिक उपलब्ध है --
णागफलीए मूलं णाइणितोएण गब्भणागेण। णागं होइ सुवण्णं धम्मंतं भच्छवाएण।। कम्मं हवेइ किट्ट रागादि कालिया अह विभाओ। सम्मंणाणचरणं परमोसहमिदि वियाणाहि।। झाणं हवेइ अग्गी तवमरणं भत्तली समक्खादो। जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परम जोईहिं ।।