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कुन्दकुन्द-भारती जह पुरिसेणाहारो, गहिओ परिणमइ सो अणेयविहं। मंसवसारुहिरादी, भावे उयरग्गिसंजुत्तो।।१७९।। तह णाणिस्स दु पुव्वं, जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं।
बझंते कम्मं ते, णय परिहीणा उ ते जीवा।।१८०।। जिस प्रकार पुरुषके द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार उदराग्निसे संयुक्त होकर अनेक प्रकार मांस, चर्बी, रुधिर आदि भावोंरूप परिणमन करता है उसी प्रकार ज्ञानीके पहले बँधे हुए जो प्रत्यय द्रव्यास्रव हैं वे बहुत भेदोंवाले कर्मोंको बाँधते हैं। वे जीव शुद्ध नयसे छूट जाते हैं।।१७९-१८० ।।
इस प्रकार आस्रवका प्ररूपण करनेवाला चतुर्थ अंक पूर्ण हुआ।
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संवराधिकारः
आगे संवराधिकारमें सर्वप्रथम कर्मोंके संवरका श्रेष्ठ उपाय जो भेदविज्ञान है उसकी प्रशंसा करते हैं --
उवओए उवओगो, कोहादिसु णत्थि कोवि उवओगो। कोहे कोहो चेव हि, उवओगे णत्थि खलु कोहो।।१८१।। अट्ठवियप्पे कम्मे, णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगम्हि य कम्म, णोकम्मं चावि णो अत्थि।।१८२।। एयं तु अविवरीदं, णाणं जइआ उ होदि जीवस्स।
तइया ण किंचि कुव्वदि, भावं उवओगसुद्धप्पा।।१८३।। उपयोगमें उपयोग है, क्रोधादिमें कोई उपयोग नहीं है। क्रोधमें क्रोध ही है, निश्चयसे उपयोगमें क्रोध नहीं है। आठ प्रकारके कर्ममें और नोकर्ममें उपयोग नहीं है तथा उपयोगमें कर्म और नोकर्म नहीं है। जिस समय जीवके यह अविपरीत ज्ञान होता है उस समय वह उपयोगसे शुद्धात्मा होता हुआ उपयोगके बिना अन्य कुछ भी भाव नहीं करता है।।१८१-१८३।। आगे भेदविज्ञानसे ही शुद्धात्माकी उपलब्धि किस प्रकार होती है? इसका उत्तर कहते हैं --
जह कणयमग्गितवियं, पि कणयहावं ण तं परिच्चयइ। तह कम्मोदयतविदो, ण जहदि णाणी उ णाणित्तं ।।१८४ ।।