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समयसार
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अण्णाणमओ भावो, अण्णाणिओ कुणदि तेण कम्माणि।
णाणमओ णाणिस्स दु, ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ।।१२७।। अज्ञानी जीवके अज्ञानमय भाव होता है इसलिए वह कर्मोंको करता है और ज्ञानी जीवके ज्ञानमय भाव होता है इसलिए कर्मोंको नहीं करता है।।१२७ ।।
आगे ज्ञानी जीवके ज्ञानमय ही भाव होता है, अन्य नहीं। इसी प्रकार अज्ञानी जीवके अज्ञानमय ही भाव होता है, अन्य नहीं। ऐसा नियम क्यों है? इसका उत्तर कहते हैं --
णाणमया भावाओ, णाणमया चेव जायदे भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स, सव्वे भावा हु णाणमया।।१२८ ।। अण्णाणमया भावा, अण्णाणो चेव जायए भावो।
जम्हा तम्हा भावा, अण्णाणमया अणाणिस्स।।१२९ ।। चूँकि ज्ञानमय भावसे ज्ञानमय भावही उत्पन्न होता है इसलिए ज्ञानी जीवके सभी भाव ज्ञानमय ही होते हैं और अज्ञानमय भावसे अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है इसलिए अज्ञानी जीवके सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं।।१२८-१२९ ।। आगे यही बात दृष्टांतसे सिद्ध करते हैं ---
कणयमया भावादो, जायंते कुंडलादयो भावा। अयमयया भावादो, तह जायंते तु कडयादी।।१३०।। अण्णाणमया भावा, अणाणिणो बहुविहा वि जायते।
णाणिस्स दुणाणमया, सव्वे भावा तहा होति।।१३१।। जिस प्रकार सुवर्णमय भावसे सुवर्णमय कुंडलादि भाव होते हैं और लोहमय भावसे लोहमय कटकादि भाव होते हैं उसी प्रकार अज्ञानमय भावसे अनेक प्रकारके अज्ञानमय भाव होते हैं और ज्ञानीके ज्ञानमय भावसे सभी ज्ञानमय भाव होते हैं।।१३०-१३१ ।। आगे अज्ञान आदिका स्वरूप बतलाते हुए उक्त बातको स्पष्ट करते हैं --
अण्णाणस्स स उदओ, जं जीवाणं अतच्चउवलद्धी। मिच्छत्तस्स दु उदओ, जीवस्स असदहाणत्तं ।।१३२।। उदओ असंजमस्स दु, जं जीवाणं हवेइ अविरमणं। जो दु कलुसोवओगो, जीवाणं सो कसाउदओ।।१३३।।