SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुन्दकुन्द-भारती सामण्णपच्चया खलु, चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य बोद्धव्वा।।१०९।। तेसिं पुणो वि य इमो, भणिदो भेदो दुतेरस वियप्पो। मिच्छादिट्ठी आदी, जाव सजोगिस्स चरमंतं ।।११०।। एदे अचेदणा खलु, पुग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा। ते जदि करंति कम्म, णवि तेसिं वेदगो आदा।।११।। गुणसण्णिदा दु एदे, कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा। तम्हा जीवोऽकत्ता, गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।।११२।। यथार्थमें चार सामान्य प्रत्यय बंधके करनेवाले कहे जाते हैं। वे चार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जानना चाहिए। फिर उन प्रत्ययोंका यह भेद तेरह भेदरूप कहा गया है जो कि मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर सयोगकेवली पर्यंत है। ये सब भेद चूंकि पुद्गलकर्मके उदयसे होते हैं इसलिए यथार्थमें अचेतन हैं। यदि ये कर्म करते हैं तो आत्मा उनका भोक्ता नहीं होता। ये प्रत्यय गुणसंज्ञावाले हैं क्योंकि कर्म करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जीव कर्मोंका अकर्ता है और गुण ही कर्म करते हैं।।१०९-११२ ।। आगे कहते हैं कि जीव और प्रत्ययोंमें एकपना नहीं है -- जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो। जीवस्साजीवस्स य, एवमणण्णत्तमावण्णं ।।११३।। एवमिह जो दु जीवो, सो चेव दुणियमदो तहाजीवो। अयमेयत्ते दोसो, पच्चयणोकम्मकम्माणं।।११४ ।। अह दे अण्णो कोहो, अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा। जह कोहो तह पच्चय, कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ।।११५ ।। जिस प्रकार उपयोग जीवसे अनन्य है -- अभिन्न है -- एकरूप है उसी प्रकार यदि क्रोध भी अनन्य माना जावे तो ऐसा माननेसे जीव तथा अजीवमें एकताकी आपत्ति आती है और इस आपत्तिसे इस लोकमें जो जीव है वही नियमसे अजीव हो जायेगा। क्रोधके साथ जीवकी एकता माननेमें जो दोष आता है वही दोष मिथ्यात्वादि चार प्रत्यय, नोकर्म तथा कर्मोंके साथ एकता माननेमें भी आता है। इस दोषसे बचनेके लिए यदि तुम्हारा यह मत हो कि क्रोध अन्य है और उपयोगात्मक आत्मा अन्य है तो जिस प्रकार क्रोधको अन्य मानते हो उसी प्रकार प्रत्यय, कर्म तथा नोकर्मको भी अन्य मानो।।११३-११५ ।। आगे सांख्य मतानुयायी शिष्यके प्रति पुद्गलद्रव्यका परिणामस्वभाव सिद्ध करते हैं --
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy