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कुन्दकुन्द-भारती भावार्थ -- जिसका जिसके साथ व्याप्य-व्यापक भाव होता है वही उसका कर्ता होता है। आत्माका घट पटादि परवस्तुओंके साथ व्याप्य-व्यापक भाव त्रिकालमें भी नहीं होता अत: वह उनका कर्ता व्यवहारसे भी कैसे हो सकता है? ।।९९।। आगे कहते हैं कि निमित्त नैमित्तिक भावसे भी आत्मा घटादि पर द्रव्योंका कर्ता नहीं है -- .
जीवो ण करेदि घडं, णेव पडं णेव सेसगे दब्वे।
जोगुवओगा उप्पादगा य 'तेसिं हवदि कत्ता।।१०० ।। जीव न घटको करता है न पटको करता है और न शेष - अन्य द्रव्योंको करता है। जीवके योग और उपयोग ही घट पटादिके कर्ता हैं -- उनके उत्पादनमें निमित्त हैं। यह जीव उन्हीं योग और उपयोगका कर्ता है।।१०।। आगे ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है यह कहते हैं --
जे पुग्गल दव्वाणं, परिणामा होंति णाणआवरणा।
ण करेदि ताणि आदा, जो जाणदि सो हवदि णाणी।।१०१।। जो ज्ञानावरणादिक पुद्गल द्रव्योंके परिणाम हैं उन्हें आत्मा नहीं करता है। जो उन्हें केवल जानता है वह ज्ञानी है।।१०१।। आगे अज्ञानी भी परभावका कर्ता नहीं है यह कहते हैं --
जं भावं सुहमसुहं, करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता।
तं तस्स होदि कम्मं, सो तस्स दु वेदगो अप्पा।।१०२।। आत्मा जिस शुभ अशुभ भावको करता है निश्चयसे वह उसका कर्ता होता है। वह भाव उस आत्माका कर्म होता है और वह आत्मा उस भावरूप कर्मका भोक्ता होता है।।१०२ ।। आगे कहते हैं कि परभाव किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता --
जे जम्हि गुणो दव्वे, सो अण्णम्हि दुण संकमदि दव्वे।
सो अण्णमसंकेतो, कह तं परिणामए दव्वं ।।१०३।। जो गुण जिस द्रव्यमें रहता है वह अन्य द्रव्यमें संक्रांत नहीं होता -- बदलकर अन्य द्रव्यमें नहीं जाता। फिर अन्य द्रव्यमें संक्रांत नहीं होनेवाला गुण अन्य द्रव्यको कैसे परिणमा सकता है? ।।१०३ ।। इस कारण यह सिद्ध हुआ कि आत्मा पुद्गल कर्मोंका अकर्ता है यह कहते हैं --
दव्वगुणस्स य आदा, ण कुणदि पुग्गलमयम्हि कम्मम्हि।
तं उभयमकुव्वंतो, तम्हि कहं तस्स सो कत्ता।।१०४।। १. सो तेसिं ज. वृ. । २. गुणे इत्यात्मख्यातिसम्मतः पाठः। ...