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कुन्दकुन्द-भारती यदि संसार में स्थित जीवोंके तेरे मतमें वर्णादिक तादात्म्यरूपसे होते हैं तो इस कारण संसारस्थित जीव रूपीपनेको प्राप्त हो गये और ऐसा होनेपर पुद्गल द्रव्य जीव सिद्ध हुआ। तथा हे दुर्बुद्धे! लक्षणकी समानतासे निर्वाणको प्राप्त हुआ पुद्गल ही जीवपनेको प्राप्त हो जावेगा।
भावार्थ -- जिसका ऐसा अभिप्राय है कि संसार अवस्थामें जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य संबंध है उसके मतमें जीव संसारी दशामें रूपी हो जावेंगे और चूँकि रूपीपना पुद्गल द्रव्यका असाधारण लक्षण है इसलिए पुद्गल द्रव्य जीवपनेको प्राप्त हो जायेगा। इतना ही नहीं, ऐसा होनेपर मोक्ष अवस्थामें भी पुद्गल द्रव्य ही स्वयं जीव हो जायेगा, क्योंकि द्रव्य सभी अवस्थाओं में अपने अविनश्वर स्वभावसे उपलक्षित रहता है। इस प्रकार पुद्गलसे भिन्न जीवद्रव्यका अभाव होनेसे जीवका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। अतः निश्चित हुआ कि वर्णादिक भाव पुद्गल द्रव्यके हैं। जीवका उनके साथ तादात्म्यसंबंध न मुक्त दशामें सिद्ध होता और न संसारी दशामें।।६३-६४ ।। आगे इसी बातको स्पष्ट करते हैं --
एक्कं च दोण्णि तिण्णि य, चत्तारि य पंच इंदिया जीवा। बादर पज्जत्तिदरा, पयडीओ णामकम्मस्स।।६५।। एदेहिं य णिव्वत्ता, जीवट्ठाणाउ करणभूदाहिं।
पयडीहिं पुग्गलमइहिं, ताहिं कहं भण्णदे जीवो।।६६।। एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय जीव तथा बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सभी नामकर्मकी प्रकृतियाँ हैं। करणस्वरूप इन प्रकृतियोंके द्वारा ही जीवसमास रचे गये हैं। अतः उन पुद्गलरूप प्रकृतियोंके द्वारा रचे हुएको जीव कैसे कहा जा सकता है? ।।६५-६६ ।। आगे कहते हैं कि ज्ञानधन आत्माको छोड़कर अन्यको जीव कहना सो सब व्यवहार है --
पज्जत्तापज्जत्ता, जे सुहुमा बादरा य जे चेव।
देहस्स जीवसण्णा , सुत्ते ववहारदो उत्ता।।६७।। जो पर्याप्त और अपर्याप्त तथा सूक्ष्म और बादर आदि जितनी शरीरकी जीव संज्ञाएँ हैं वे सभी आगममें व्यवहार नयसे कही गयी हैं।।६७।। आगे यह भी निश्चित ही है कि रागादि भाव जीव नहीं हैं यह कहते हैं --
मोहण कम्मस्सुदया, दु वणिया' जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा, जे णिच्चमचेदणा उत्ता।।६८।।
१. वण्णिदा ज. वृ. । २. ते ज. वृ. ।