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________________ ५२ कुन्दकुन्द - भारती जिस प्रकार नगर जुदा है, राजा जुदा है, उसी प्रकार शरीर जुदा है और उसमें रहनेवाला केवली जुदा है अत: शरीर के स्तवनसे केवलीका स्तवन निश्चय नय ठीक नहीं मानता है ।। ३० ।। आगे निश्चय नयसे स्तुति किस प्रकार होती है यह कहते हैं. जो इंदिये जिणत्ता, णाणसहावाधिअं मुणदि आदं । तं खलु जिदिदियं ते, भांति जे णिच्छिदा साहू । । ३१ । । जो इंद्रियोंको जीतकर ज्ञानस्वभावसे अधिक आत्माको जानता है उसे नियमसे, जो निश्चय नमें स्थित साधु हैं वे जितेंद्रिय कहते हैं । । ३१ ।। यही बात फिर कहते हैं जो मोहं तु जिणित्ता, णाणसहावाधियं मुणइ आदं । तं जिदमोहं साहु, परमट्ठवियाणया विंति । । ३२ ।। जो मोहको जीतकर ज्ञानस्वभावसे अधिक आत्माको जानता है उस साधुको परमार्थके जाननेवाले मुनि जितमोह कहते हैं । । ३२ ।। यही बात फिर कहते हैं -- जिदमोहस्स दुजइया, खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो, भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं । । ३३ ।। मोहको जीतनेवाले साधुका मोह जिस समय क्षीण हो जाता है। नष्ट हो जाता है उस समय निश्चयके जाननेवाले मुनियोंके द्वारा वह क्षीणमोह कहा जाता है ।। ३३ ।। आगे ज्ञान ही प्रत्याख्यान है यह कहते हैं -- सव्वे भावा जम्हा, पच्चक्खाई परेत्ति 'णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं, णाणं णियमा मुणेयव्वं । । ३४।। चूँकि ज्ञानी जीव अपने सिवाय समस्त भावोंको पर हैं ऐसा जानकर छोड़ता है इसलिए ज्ञानको ही नियमसे प्रत्याख्यान जानना चाहिए ।। ३४ ।। आगे इस विषय को दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं -- जहणाम कवि पुरिसो, परदव्वमिणंति जाणिदं चयदि । तह सव्वे परभावे, णाऊण विमुंचदे णाणी ।। ३५ ।। जिस प्रकार कोई पुरुष 'यह परद्रव्य है' ऐसा जानकर उसे छोड़ देता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव समस्त परभावोंको ये पर हैं ऐसा जानकर छोड़ देता है ।। ३५ ।। १. णादूण ज. वृ. । २. मुणेदव्वं ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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