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________________ कुन्दकुन्द-भारती आगे अप्रतिबुद्ध और प्रतिबुद्ध जीवका लक्षण कहते हैं -- अहमेदं एदमहं, अहमेदस्सेव होमि मम एवं। अण्णं जं परदव्वं, सचित्ताचित्तमिस्सं वा।।२०।। आसि मम पुव्वमेदं, अहमेदं चावि पुव्वकालम्हि। होदिदि पुणोवि मज्झं, अहमेदं चावि होस्सामि।।२१।। एयत्तु असंभूदं, आदवियप्पं करेदि संमूढो। भूदत्थं जाणंतो, ण करेदि दु तं असंमूढो।।२२।। 'चेतन, अचेतन अथवा मिश्ररूप जो कुछ भी परपदार्थ हैं मैं उन रूप हूँ, वे मुझ रूप हैं, मैं उनका हूँ, वे मेरे हैं, पूर्व समयमें वे मेरे थे, मैं उनका था, भविष्यत्में वे फिर मेरे होंगे और मैं उनका होऊँगा' जो पुरुष इस प्रकार मिथ्या आत्मविकल्प करता है वह मूढ है -- अप्रतिबुद्ध है -- अज्ञानी है और जो परमार्थ वस्तु स्वरूपको जानता हुआ उस मिथ्या आत्मविकल्पको नहीं करता है वह अमूढ़ है -- प्रतिबद्ध है -- ज्ञानी है। भावार्थ -- जो आत्माको अन्यरूप अथवा अन्यका स्वामी मानता है वह अज्ञानी है और जो आत्माको आत्मरूप तथा परको पररूप जानता है वह ज्ञानी है।।२०-२२ ।। आगे अप्रतिबुद्धको समझानेके लिए उपाय कहते हैं -- अण्णांणमोहिदमदी, मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा, जीवो' बहुभावसंजुत्तो।।२३।। सव्वण्हुणाणदिट्ठो, जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। किह सो पुग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ।।२४।। जदि सो पुग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं। तो सत्तो "वत्तुं जे, मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं ।।२५।। जिसकी बुद्धि अज्ञानसे मोहित हो रही है ऐसा पुरुष कहता है कि यह शरीरादि बद्ध तथा धनधान्यादि अबद्ध पुद्गल द्रव्य मेरा है और यह जीव अनेक भावोंसे संयुक्त है। इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि सर्वज्ञके ज्ञानके द्वारा देखा हुआ तथा निरंतर उपयोगलक्षणवाला जीव पुद्गलद्रव्यरूप किस प्रकार हो सकता है? जिससे कि तू कहता है कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है। यदि जीव पुद्गलद्रव्यरूप होता है तो पुद्गल भी जीवपनेको प्राप्त हो जावेगा और तभी यह कहा जा सकेगा कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है। पर ऐसा १. जीवे ज. वृ. । २. बहुभावसंजुत्ते ज. वृ.। ३. सक्का। ४. वुत्तुं ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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