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________________ पंचास्तिकाय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पाँचों लोकसे जुदे नहीं हैं -- इन पाँचोंका सद्भाव लोकमें ही पाया जाता है, परंतु आकाश लोकसे अपृथक् भी है और पृथक् भी है -- आकाश लोक और अलोक दोनोंमें व्याप्त है, वह अनंत है।।९१ ।। गाया ___ आकाश ही को गति और स्थितिका कारण मानने में दोष आगासं अवगासं, गमणट्ठिदि कारणेहिं देदि जदि। उड़े गदिप्पधाणा, सिद्धा चिटुंति किध तत्थ।।१२।। यदि ऐसा माना जाय कि आकाश ही अवकाश देता है और आकाश ही गमन स्थितिका कारण है तो फिर ऊर्ध्वगतिमें जानेवाले सिद्ध परमेष्ठी लोकाग्रपर ही क्यों रुक जाते है? लोकाग्रके आगे आकाशका अभाव तो है नहीं, अत: उसके आगे भी उसका गमन होता रहना चाहिए, परंतु ऐसा होता नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि आकाशका काम अवकाश देना ही है और धर्म तथा अधर्मका काम चलने और ठहरनेमें सहायता देना ही।।९२।। जम्हा उवरिट्ठाणं, सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। तम्हा गमणट्ठाणं, आयासे जाण णस्थित्ति।।९३।। यत: जिनेंद्र भगवानने सिद्धोंका अवस्थान लोकके अग्रभागमें ही बतलाया है, अतः आकाशमें गमन और स्थितिका हेतुत्व नहीं पाया जा सकता ऐसा जानना चाहिए।।९३ ।। जदि हवदि गमणहेदू, आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी, लोगस्स य अंतपरिवुड्डी।।९४ ।। यदि आकाशको जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिका कारण माना जायेगा तो अलोककी हानि होगी और लोकके अंतकी वृद्धि भी। अलोकका व्यवहार मिट जायेगा और लोककी सीमा टूट जायेगी।।९४ ।। तम्हा धम्माधम्मा, गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं। इदि जिणवरेहिं भणिदं, लोगसहावं सुणताणं।।९५ ।। 'इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्य ही गमन तथा स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं है' ऐसा जिनेंद्रदेवने लोकका स्वभाव सुननेवालोंसे कहा है।।९५ ।। धर्म, अधर्म और आकाशकी एकरूपता तथा अनेकरूपता का वर्णन धम्माधम्मागासा, अपुधब्भूदा समाणपरिणामा। पुधगुवलद्धिविसेसा, करंति एगत्तमण्णत्तं ।।९६।। धर्म, अधर्म और लोकाकाश ये तीनों ही द्रव्य एकक्षेत्रावगाही होनेसे अपृथग्भूत हैं, समान परिणामवाले
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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