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पंचास्तिकाय
द्रव्यका लक्षण
दवियदि गच्छदि ताई, ताइं सब्भावपज्जयाई जं ।
दवियं तं भण्णंते, अणण्णभूदं तु सत्तादो ।। ९ ।।
जो उन गुण- पर्यायोंको प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं, यह द्रव्य सत्तासे अभिन्न रहता है। सत्ता ही द्रव्य कहलाती है ।।९।।
द्रव्यका दूसरा लक्षण
दव्व' सल्लक्खणियं, उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जायस वा, जंतं भण्णंति सव्वण्हू ।। १० ।।
जो सत्तारूप लक्षणसे सहित है, अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है, अथवा गुण और पर्यायोंका आश्रय है उसे सर्वज्ञदेव द्रव्य कहते हैं ।। १० ।।
पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय और ध्रौव्यकी सिद्धि
उप्पत्तीव विणासो, दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो ।
विगमुप्पादधुवत्तं, करेंति तस्सेव पज्जाया । । ११ । ।
द्रव्यका न उत्पाद होता है और न विनाश। वह सदा अस्तित्वरूप रहता है। उसकी पर्याय ही उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप परिणमन करती है। [द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्य अपरिणामी है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा परिणामी है । ] ।।११।।
द्रव्य और पर्यायका अभेद निरूपण
पज्जयविजुदं दव्वं, दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि ।
दोहं अणणभूदं भावं समणा परूविंति । । १२ ।।
न द्रव्य पर्यायसे रहित होता है और न पर्यायही द्रव्यसे रहित होते हैं। महामुनि दोनोंका अभेदरूप वर्णन करते हैं ।। १२ ।।
द्रव्य और गुणका अभेद
दविणाण गुणा, गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि ।
अव्वदिरित्तो भावो, दव्वगुणाणं हवदि तम्हा । । १३ ।।
द्रव्यके बिना न गुण ठहर सकते हैं और न गुणोंके बिना द्रव्य ही ठहर सकता है, अतः द्रव्य और
गुणों के बीच अव्यतिरिक्त भाव होता है -- दोनों अभिन्न रहते हैं । । १३ ।।
१.
'तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिद्धम् ।' -- पंचाध्यायी । 'सद्द्रव्यम्', 'उत्पादव्ययध्ध्रौव्ययुक्तं सत्', 'गुणपर्यवद् द्रव्यम्'। -- त. सू. ।
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