SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म सिद्धान्त ... १४. उपशम आदि यह तो इसका आध्यात्मिक स्वरूप हुआ। अब इसका सैद्धान्तिक स्वरूप भी समझिये । क्षयोपशम में क्षय तथा उपशम दोनों सम्मिलित हैं । जिस प्रकार चुन्धियाने वाली आँख को न मुंदी कहा जा सकता है न खुली, उसी प्रकार क्षयोपशम प्राप्त कर्म प्रकृति को न नष्ट कहा जा सकता है न उदित । जिस प्रकार चुन्धियाने वाली आँख में मुंदने की शक्ति निद्रावस्था की अपेक्षा काफी क्षीण हो चुकी है उसी प्रकार उपशम के पश्चात् आंशिक उदय वाली इस अवस्था में कर्म की शक्ति पहले की अपेक्षा अत्यन्त क्षीण हो कर उदय में आती है। वर्तमान निषेक की शक्ति का क्षीण होकर उदय में आना ही यहाँ उस निषेक का क्षय' समझना चाहिये । यद्यपि उस अत्यन्त क्षीण शक्ति की अपेक्षा इसे उदय कह सकते हैं परन्तु जीव के गुण को पूर्णतया आच्छादित अथवा विकृत करने के लिये समर्थ न होने से वह यहाँ अत्यन्त गौण है। . उपशम वाला अंश पूर्वोक्त जैसा ही है । ऊपरवाले निषेकों में जो द्रव्य अधिक शक्ति वाला पड़ा है उसका अपकर्षण न होना ही यहाँ उपशम है, क्योंकि यदि कदाचित् वह द्रव्य अपकर्षण द्वारा नीचे वाले निषेकों में मिल जाये तो सारा खेल ही बिगड़ जाये। इस अवस्था में उनका उदित हो जाना अवश्यम्भावी हो जाये। क्षयोपशम के काल तक उस द्रव्य का अपने स्थान में अवस्थित रहना ही यहाँ उपशम है। ___ इस प्रकार क्षय तथा उपशम इन दोनों के मेल से इस विधान को 'क्षयोपशम' कहा जाता है । क्षीण शक्ति वाले उदय की अपेक्षा इसका दूसरा नाम 'वेदक' भी है, क्योंकि कितना भी क्षीण क्यों न हो कर्म के प्रभाव कावेदन तो यहाँ होता ही रहता है। - आँख चुन्धियाने वाली अवस्था की भाँति कर्म के क्षयोपशम वाली इस अवस्था में जीव के गुण हीन या अधिक रूप में प्रकट अवश्य रहते हैं। जिस प्रकार घोड़ा सदा ही हलका-हलका सोता रहता है, परन्त सोते-सोते ही दौड़ता तथा रथ को खेंचता भी रहता है, उसी प्रकार कर्म-प्रकृति के क्षयोपशम की दशा में जीव कर्म के प्रभाव का अनुभव भी करता रहता है और साथ-साथ अपनी शक्तियों का रस भी लेता रहता है; अर्थात् वर्तमान के धुन्धले तथा अपूर्ण ज्ञान दर्शन आदि की भाँति समता तथा शमता का हीनाधिक स्वाद भी लेता रहता है। उपशम की भाँति क्षयोपशम से भी व्यक्ति नीचे गिर जाता है अर्थात् पुनः कर्म-प्रकृति के प्रभाव में आकर अपने उक्त रस से वञ्चित हो जाता है, परन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ उसका अवस्थान उपशम की भाँति क्षण मात्र के लिये न होकर प्राय: अधिक काल के लिये होता है। दूसरी बात यह है कि उपशम से गिरकर पुन: उपशम नहीं होता जब कि क्षयोपशम से गिरकर पुन: क्षयोपशम हो जाता है । इस क्षेत्र में यह गिरना चढ़ना बहुत लम्बे काल तक चलता रहता है। .
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy