SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४. उपशम आदि कर्म सिद्धान्त ही मोह क्षोभ विहीन वह उपशम भाव है जिसे कि जीव का स्वभाव होने के कारण धर्म कहा जाता है । इस अवस्था में मोहनीय प्रकृति उदय से विरत रहती है। यही उस प्रकृति का उपशम है। एक क्षण पश्चात् वह प्रकृति छेड़े गए सुप्त सर्प की भाँति पुन: फुफकारने लगती है। वही उसका उदय में आ जाना है। जिस प्रकार गाढ़ निद्रा के अकस्मात् भंग हो जाने पर आँख खुल तो जाती है परन्तु क्षण भर के लिए प्रकाश देखकर पुन: मुंद जाती है; इस प्रकार अनादि कालीन विषमता तथा श्रान्ति के अकस्मात् दूर हो जाने पर क्षण भर के लिये पूर्ण समता तथा शमता प्रतीति में आकर पुन: लुप्त हो जाया करती है। यहाँ पूर्ण समता की क्षणिक प्रतीति ही वह क्षणिक तत्त्वदृष्टि है जिसे कि शास्त्रों में उपशम-सम्यक्त्व कहा गया है। दर्शन-मोहनीय प्रकृति का उपशम अथवा उदय-विरति इसका हेतु है। इसी प्रकार पूर्ण शमता की क्षणिक प्रतीति उपशम-चारित्र है और चारित्र-मोहनीय प्रकृति का उपशम अथवा उदय-विरति इसका हेतु है। __ गाढ़ निद्रा से आँख खुल जाने के पश्चात् वह खुली ही रहे ऐसा होना सम्भव नहीं। भले ही २-४ बार चुन्धियाकर वह खुल जाये परन्तु प्रथम बार खुलकर आँख अवश्य मुंद जाती है, यह बात सर्व परिचित है। इसी प्रकार गुरु कृपा से अनादिगत विषमता अथवा श्रान्ति दूर हो जाने पर जो समता अथवा शमता प्राप्त होती है वह टिकी रहे ऐसा होना सम्भव नहीं। भले ही दो चार बार समता-विषमता में झूलकर वह टिक जाये परन्तु प्रथम बार तो दर्शन देकर वह अवश्य लुप्त हो ही जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि दर्शन-मोहनीय हो या चारित्र-मोहनीय, इनका उपशम केवल एक क्षण के लिये ही होता है, अधिक समय के लिए नहीं। इन प्रकृतियों के उपशम हो जाने के फलस्वरूप उपशम-सम्यक्त्व तथा उपशम-चारित्र भी क्षण भर के लिए ही अपने दर्शन देते हैं, अधिक समय के लिए नहीं। अब कर्मों के उपशम का सैद्धान्तिक क्रम संक्षेप में दिखाता हूँ। उपशम वास्तव में विशेष रूप वाले अपकर्षण तथा उत्कर्षण का फल है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। विशेषता इतनी है कि यह उत्कर्षण सत्ता के जिस किसी भी निषेक का नहीं हो जाता है बल्कि किन्हीं विशेष निषेकों का ही होता है। वर्तमान समयवर्ती परिणाम का निमित्त पाकर कुछ मिनट या सैकेण्ड पश्चात् उदय में आने वाले जो थोड़े से निषेक हैं, उन पर ही उपशम-विधान लागू होता है, उनके ऊपर तथा नीचे वाले अन्य निषेकों पर नहीं। अर्थात् मध्यवर्ती उन थोड़े से निषेकों का ही उत्कर्षण अपकर्षण होता है, अन्य का नहीं। उदाहरणार्थ कुल निषेक ५० हैं। सबसे नीचे का प्रथम निषेक उदय में है । १० निषेक छोड़कर नं० ११ से १५ तक के ५ निषेकों का उत्कर्षण तथा अपकर्षण हो जाय, उसे उन निषेकों का उपशम कहते हैं। इस विधान में इन ५ निषेकों का कुछ
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy