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१३. संक्रमण आदि
· कर्म सिद्धान्त इन तीनों बातों के अतिरिक्त कभी ऊपर वाला कर्म या निषेक नीचे आ जाता है, अर्थात् पीछे उदय आने वाला कर्म या निषेक पहले उदय में आ जाता है । इसे 'उदीरणा' कहते हैं जिसका अन्तर्भाव अपकर्षण' नामक करण में किया जा सकता है, क्योंकि स्थिति के घटे बिना ऐसा होना असम्भव है। उदय या उदीरणा द्वारा फल देकर कर्म झड़ जाता है अर्थात् अपनी प्रकृति को तथा जीव-प्रदेशों के साथ .. संश्लेष-सम्बन्ध को छोडकर पुन: सामान्य कार्मण-वर्गणारूप हो जाता है। इसे निर्जरा कहते हैं। - संक्रमण आदि नाम वाले ये सब करण दो-दो प्रकार के हैं-उद्यम-विशेष के बिना प्रत्येक समयवर्ती परिणाम के निमित्त से स्वत: होने वाले, और उद्यम-विशेष से किये जाने वाले। इस उद्यम में ही मोक्ष-मार्ग की साधना निहित है, यह बात आगे बताई जायेगी। यह उद्यम दो प्रकार का होता है-द्रव्यात्मक और भावात्मक । द्रव्यात्मक उद्यम का नाम तप, व्रत, संयम, समिति, ध्यान आदि है, क्योंकि उनका सम्बन्ध मन वचन तथा काय की परिस्पन्दन रूप क्रिया के साथ है। भावात्मक उद्यम का नाम समता तथा शमता है, क्योंकि इसका सम्बन्ध योग के साथ न होकर उपयोग के साथ है। ध्यान तथा समाधि के द्वारा इसका अभ्यास किया जाता है। द्रव्यात्मक तथा भावात्मक ये दोनों ही प्रकार के उद्यम साधक दशा में सदा साथ-साथ रहते हैं। इनके द्वारा अशुभ कर्म प्रकृतियाँ शुभ में परिवर्तित होती जाती हैं। साथ-साथ शुभ प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग में हानि होती जाती है। स्थिति शुभ तथा अशुभ दोनों की घटती चली जाती है। इसी में साधना का सार्थक्य तथा साधक का हित निहित है।
३. संक्रमण-द्रव्य-कर्म की प्रकृति के पूर्वोक्त परिवर्तन को 'संक्रमण' कहते हैं। इसकी कुछ विशेषतायें जान लेना योग्य है । अनुभाग की हानि-वृद्धि ही वास्तव में इसका सूक्ष्म स्वरूप है, क्योंकि 'प्रकृति' अनुभाग का ही सामान्य रूप होती है। कोई भी मूल प्रकृति अन्य मूल प्रकृति रूप नहीं हो सकती, क्योंकि अनुभाग की हानि वृद्धि होने पर भी उसकी जाति में भेद नहीं पड़ता। मूल प्रकृति के अन्तर्गत जो उत्तर भेद या उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं, उनमें परस्पर परिवर्तन हो जाना ही संक्रमण है, जैसे कि क्रोध का मान में या अनन्तानुबन्धी का प्रत्याख्यानादि में, अथवा इससे उलटा। इसी प्रकार माया लोभ आदि सभी उत्तर प्रकृतियों में परस्पर जानना, परन्तु मोहनीय की प्रकृतियों में से कोई भी ज्ञानावरणी या दर्शनावरणी बन जाये अथवा दर्शनावरणी से वेदनीय या ज्ञानावरणी बन जाये अथवा ज्ञानावरणी आदि बदलकर मोहनीय की मूल या उत्तर किसी प्रकृति के रूप में परिणत हो जाये, यह सम्भव नहीं। दूसरी - विशेषता दर्शन मोहनीय तथा चारित्रं मोहनीय के विषय में है। यद्यपि दोनों सामान्यतया मोहनीय की उत्तर प्रकृतियाँ हैं, परन्तु मूल के तुल्य होने के कारण इनका