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________________ कर्म सिद्धान्त ५६ १२. उदय तथा सत्त्व अन्य किसी पदार्थ को पकड़ने का प्रयत्न करता है, तब-तब न चाहते हुये भी वह स्वतः द्रव्य कर्म के साथ बंध जाता है। जीव का स्वाभाविक कर्म समता तथा शमतायुक्त साक्षी भाव से इस जगत् को जानना देखना मात्र था । कर्त्तव्य की इस सीमा का उल्लंघन करके उसे जानने की बजाय पकड़ने का प्रयत्न करना एक बड़ा अपराध है और कर्म-बन्धन प्रकृति माता के द्वारा दिया गया दण्ड है। यह जगत् अजायब घर है जिसकी वस्तुयें देखी जा सकती हैं पर छूई नहीं जा सकती। छूने का प्रयत्न करेंगें तो अवश्य पकड़े जायेंगे । इसी प्रकार यहाँ भी समझना । अन्तर केवल इतना है कि मानवकृत अजायबघर में पकड़ने तथा दण्ड देने का कार्य मानव के आधीन है, और इस प्राकृतिक अजायबघर में वह कार्य प्रकृति के आधीन है । जिस प्रकार बाल कन्या भोग के योग्य नहीं होती, परन्तु युवा हो जाने पर वही पुरुषों में काम वासना जागृत कर देती है, उसी प्रकार आबाधा काल पर्यन्त द्रव्य-कर्म भोग-योग्य या फलदान योग्य नहीं होता, परन्तु उसके पश्चात् वहीं परिपक्व होकर जीव के गुणों में विकार तथा आच्छादन उत्पन्न कर देता है, और नये शरीर का तथा भोग आदि का सम्पादन भी । जिस प्रकार आम्र वृक्ष पर लगे हुये सभी आम युगपत् नहीं पकते, बल्कि धीरे-धीरे प्रति दिन कुछ-कुछ ही पकते हैं और हमारे भोज्य बनते हैं, उसी प्रकार बद्ध-कर्म के सर्व प्रदेश भी युगपत् उदय में नहीं आते, बल्कि धीरे-धीरे प्रति समय कुछ-कुछ प्रदेश या एक-एक निषेक ही उदय में आता है और जीव को फल देकर झड़ जाता है। जिस प्रकार पकने से पहले वे कच्चे आम केवल वृक्ष पर लगे अवश्य रहते हैं, परन्तु हमारी दृष्टि को आकर्षित नहीं करते, इसी प्रकार उदय में आने से पहले वे कर्म भी सत्ता में पड़े अवश्य रहते हैं, परन्तु जीव में विकार आदि उत्पन्न नहीं करते । जिस प्रकार कि वृक्ष पर लगा हुआ आम भोगा नही जा सकता परन्तु पकते ही खाने के लिये उस पर से तोड़ लिया जाता है, उसी प्रकार सत्ता में पड़ा हुआ कर्म भोगा नहीं जाता, परन्तु उदय द्वारा वही अपना फल देकर झड़ जाता है । यह क्रम अनादि काल से यों ही चला आ रहा है, और यों ही चलता रहेगा । जब तक जीव बाह्य जगत् में पड़े इन पदार्थों को पकड़ने की अपनी पुरानी टेव छोड़कर, उनका ज्ञाता दृष्टा मात्र नहीं हो जाता तब तक यह क्रम यों ही चलता रहेगा । यह सम्भव न हो ऐसी बात नहीं है। उसकी एक विशेष साधना है, जिसका कथन लेखक द्वारा रचित 'शान्ति पथ प्रदर्शन' नामक ग्रन्थ में बड़ी सुन्दर तथा सरल रीति से किया गया है । निज-कल्याणार्थ तथा कर्म-बन्ध से मुक्ति पाने के लिये पाठक उसे अवश्य पढें ।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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