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________________ ४६ कर्म सिद्धान्त १०. स्थित्यादि बन्य अब बन्ध की तरफ से देखिए । जीव का राग-द्वेषात्मक भाव कर्म जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त मन्द तथा तीव्र भेदों को लिये, अनेक प्रकार की शक्ति या अनुभाग से युक्त होता है, यह बात सर्व प्रत्यक्ष है। किसी समय का क्रोध मन्द होता है और किसी समय का तीव्र । इसे भाव कर्म का अनुभाग समझो । भाव कर्म के अनुभाग के अनुसार ही उसके निमित्त से, डिग्री टु डिग्री द्रव्य कर्म के अनुभाग का बन्ध होता है। अधिक अनुभाग वाले भाव कर्म से अधिक अनुभाग वाले द्रव्य कर्म का और हीन वाले से हीन का। अनुभाग ही जीव के गुणों को हीन या अधिक बाधा पहुँचाता है, इसलिए साक्षात् रूप से वही जीव को विघ्नकारी है, केवल प्रकृति नहीं । - ४. प्रदेश-प्रदेश वाला विकल्प अधिक वर्णनीय नहीं है। द्रव्य कर्म की प्रत्येक प्रकृति में जितने परमाणु (वर्गणा नहीं) बन्ध को प्राप्त होते हैं, उनको उस प्रकृति के प्रदेश कहते हैं। यद्यपि कोई भी समय-प्रबद्ध अनन्त प्रदेशों से कम का नहीं होता, तदपि जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त अनन्त भी अनेक प्रकार का होता है, जिसके कारण किसी समय-प्रबद्ध में कम अनन्त प्रदेश होते हैं और किसी में अधिक अनन्त । समय-प्रबद्ध की तो बात नहीं एक एक निषेक में भी अनन्तों प्रदेश हैं । कभी भी एक या संख्यात या असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध व्यवहारका विषय नहीं बन सकता। पृथक् प्रदेश तो परमाणु है जो पुद्गल की शुद्ध पर्याय होने से द्रव्य-कर्म रूप हो नहीं सकता। कर्म वर्गणा के रूप में संश्लेष-बन्ध को प्राप्त होकर उसका जो मिश्रित विकारी रूप प्रगट होता है उसी का नाम प्रकृति है, और उसमें ही अनुभाग रहता है । प्रदेश-बन्ध से जीव को कोई हानि-लाभ नहीं, क्योंकि प्रदेश हीन हों या अधिक फल तो तीव्र मन्द अनुभाग का होता है, प्रदेशों की संख्या का नहीं। प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश वाले द्रव्य कर्म के बन्ध उदय आदि का यह कार्य सहज स्वभाव से निमित्त-नैमित्तिक भाव द्वारा होता रहता है, जिसमें किसी भी नियन्ता की कोई आवश्यकता नहीं। जब तक द्रव्य कर्मों तथा भाव कर्मों का यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध चलता रहेगा तब तक संसार भी स्थित रहेगा। इसलिए अपने भावों को शुद्ध करने की साधना द्वारा इस चक्र का विच्छेद करना कर्तव्य है। प्रकृति स्थिति आदि चारों में प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध जीव के योग द्वारा होता है और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय रञ्जित उपयोग द्वारा । चारों प्रकार के बन्ध में स्थिति तथा अनुभाग ही घातक हैं, इसलिए इनको रोकने के लिए मुमुक्षु को अपना उपयोग ही सुधारना चाहिए। उसके सुधर जाने पर भले योग द्वारा प्रकृति प्रदेश बन्धता रहे, पर वह कोई भी बाधा नहीं पहुँचाता, इसलिए व्यर्थ है।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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