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कर्म सिद्धान्त
१०. स्थित्यादि बन्ध जीव-प्रदेशों से बन्धन तुड़ाकर पुन: कार्मण वर्गणाओं में सम्मिलित हो जाता है या बिखर कर परमाणुओं में विभाजित हो जाता है। इसे ही कर्म का झड़ना या 'निर्जरा' कहते हैं।
यह तो स्थिति आदि का सामान्य कथन हुआ। अब इसमें कुछ विशेषता दर्शाता हूँ। कर्म-स्थिति में 'निषेक रचना' हुआ करती है। किसी एक समय में बन्धा कर्म-वर्गणाओं का एक पिण्ड एक 'समय-प्रबद्ध' कहलाता है । यद्यपि सामान्य रूप से बताई गई स्थिति इस सारे पिण्ड की गिनी जाती है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। इस 'समय-प्रबद्ध' में आठों प्रकृतियों के कार्मण स्कन्ध सम्मिलित रहते हैं। प्रत्येक प्रकृति के स्कन्ध में अनन्तों कार्मण वर्गणायें होती हैं, जिनकी स्थिति समान नहीं होती । कुछ की स्थिति कम होती है, कुछ की अधिक और अन्य कुछ की उससे भी अधिक । इस क्रम से चलते-चलते अन्तिम कुछ वर्गणाओं की स्थिति सबसे अधिक होती है। यह उत्कृष्ट स्थिति ही उस विवक्षित कर्म की सामान्य स्थिति कही गई है।।
इसको समझने के लिए विवक्षित स्थिति के समयों को अपनी कल्पना में ईंटों की भाँति ऊपर नीचे नम्बरवार चिन लीजिए। अब एक 'समय-प्रबद्ध' के अन्तर्गत एक-एक विवक्षित प्रकृति के द्रव्य को वर्गणाओं में विभाजित करके इन क्रमबद्ध समयों पर रखते जाइए । वह भी इस क्रम से कि सबसे अधिक वर्गणायें सबसे निचले समय पर अर्थात् स्थिति-काल के प्रथम समय पर आयें। उनसे कुछ कम उसके ऊपर वाले अनन्तरवर्ती द्वितीय समय पर, उनसे कुछ कम तीसरे समय पर, और इस प्रकार बराबर हानि क्रमसे प्रत्येक समय पर कुछ-कुछ वर्गणायें रखते जाइए। यहाँ तक कि सबसे ऊपर वाले अन्तिम समय पर सबसे कम (अन्तिम शेष भाग) रखकर उस विवक्षित द्रव्य को समाप्त कर दीजिए। एक-एक समय पर टिकायी गयीं वर्गणाओं का जो पिण्ड है वह ही उस-उस समय का 'निषेक' कहा जाता है। यही इस विशेष कथन का तात्पर्य है, जिसका उल्लेख बन्धकी तरफ से स्थिति बताने के लिए किया गया है। -
अब उदय की तरफ से भी इसी प्रकार देखिये । सत्तारूपसे निश्चेष्ट पड़ा कर्मजब फलोन्मुख होकर अपना सर उभारता है तब वह उदय में आया कहा जाता है । उदयोन्मुख हो जाने के पश्चात् भी वह कुछ काल तक फल देने के लिये समर्थ नहीं हो पाता, उसी प्रकार जिस प्रकार कि बहुत काल तक मूच्छित रहने वाला व्यक्ति होश आ जाने पर भी तुरन्त काम करने के योग्य नहीं हो जाता । उदयोन्मुख हो जाने के पश्चात् जितने काल पर्यन्त कर्म फल देने के योग्य नहीं होता उतने काल को 'आबाधा काल' कहते हैं । कुल स्थिति-काल का यह आबाधा-काल असंख्यातवाँ भाग मात्र या इससे भी कम होता है, इसलिये उसको यहाँ गौण कर दिया जाता है। इस आबाधा काल के समाप्त होने पर अनन्तरवर्ती क्षण से ही उदय काल प्रारम्भ हो जाता है । एक समय-प्रबद्ध का पूरा का पूरा