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कर्म सिद्धान्त
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८. प्रकृति बन्ध
२. कर्म प्रकृति-— जैसा - जैसा चित्र-विचित्र योग तथा उपयोग जीव करता है, उसके निमित्त से वैसी वैसी ही चित्र-विचित्र शक्तियाँ या प्रकृतियाँ उस कार्मण शरीर में पड़ जाती हैं। कुछ वर्गणायें किसी एक प्रकृतिको और कुछ किसी अन्य प्रकृति को धारण कर लेती हैं । जिस प्रकार एक ही वृक्ष काष्ठ, पत्र, पुष्प, फल आदि के रूप में अनेक जातीयता को प्राप्त हो जाता है, अथवा जिस प्रकार एक ही यह स्थूल शरीर हाथ पाँव आदि के रूप में चलने फिरने, बोलने, ग्रहण करने देखने, सुनने आदि रूप अनेक शक्तियों को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार एक ही यह कार्मण शरीर विभिन्न प्रकृतियों को प्राप्त होकर अनेक अंगों या भेदों वाला हो जाता है ।
यद्यपि कर्म तथा उसके प्रकृति स्थिति आदि विशेष इन्द्रिय- प्रत्यक्ष नहीं हैं, तदपि उनके निमित्त से होने वाले कार्य अर्थात् अपने अन्तरंग भाव, शरीर, तथा संयोग वियोग आदि सभी के प्रत्यक्ष हैं। इन पर से उसकी कारणभूता प्रकृतियों का अनुमान लगाया जा सकता है, क्योंकि कार्य पर से कारण का अनुमान करना न्याय संगत है। जैसे-जैसे तथा जितने कुछ भी भाव व संयोग आदि हैं; वैसी-वैसी तथा उतनी ही प्रकृतियाँ होनी चाहिए । अत: उन्हें जानने से पहले हमें उन भावों तथा कार्यों को जानना चाहिए । विचार करने पर आठ प्रधान भाव या कार्य प्रतीत होते हैं जिनके उत्तर विभाग १४८ हैं और विस्तार करने पर अनन्त हैं । अतः द्रव्य कर्म की मूल प्रकृतियाँ ८ और उत्तर प्रकृतियाँ १४८ मानी गई हैं । उपादान या वस्तु स्वभाव की भाषा में प्रत्येक प्रकृति का कथन करना बहुत कठिन है, अत: कर्म सिद्धान्त में सर्वत्र निमित्त की भाषा का प्रयोग प्रधान रहा है 1
३. घाती - अघाती विभाग — जैसा कि पहले बताया गया है जीव पदार्थ द्विरूप है— द्रव्यात्मक तथा भावात्मक । अत: उसके विकार भी दो प्रकार के हैं— द्रव्य-विकार या प्रदेश - विकार और भाव-विकार । बाह्य संयोग द्रव्यात्मक ही होता है भावात्मक नहीं, इसलिए प्रदेश - विकार का अथवा बाह्य संयोग वियोग का कोई भी तात्त्विक सम्बन्ध जीव के भावों के साथ नहीं है। उनसे जीव के मूल भावात्मक स्वरूप में कोई क्षति या घात होना सम्भव नहीं है । यथा जीव का आकार छोटा हो या बड़ा, शरीर कृश हो या पुष्ट, काला हो या गोरा, धनवान हो या निर्धन, यदि मोह या मिथ्यात्व नहीं है तो राग द्वेषात्मक भाव-विकार सम्भव नहीं, और न ही ज्ञान की हानि वृद्धि । अत: उसकी निमित्तभूता प्रकृति को अघातिया कहा जाता है । भाव-विकार की निमित्तभूता प्रकृतियों क्योंकि जीव के भावों को आच्छादित या विकृत करना है, इसलिए वे घातियाँ कही गई हैं। घातिया तथा अघातिया ये दोनों ही चार-चार प्रकार की हैं, जिनका कथन आगे किया जाएगा।
अन्तरंग भावों का या शुद्ध स्वभाव का घात करने से घातिया की सभी मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ अशुभ अथवा पाप रूप मानी जाती हैं परन्तु अघातिया में दो विभाग हैं- शुभ तथा अशुभ अथवा पुण्य तथा पाप । पुण्य प्रकृतियों का फल इष्ट शरीर, इष्ट आयु तथा इष्ट भोगों का संयोग कराना है और पाप प्रकृतियों का अनिष्ट शरीर, अनिष्ट आयु तथा अनिष्ट भोगों का । विस्तार आगे यथास्थान यथा-प्रसंग आता रहेगा । इसे ही अन्यत्र 'प्रारब्ध' कहा जाता है 1