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________________ कर्म सिद्धान्त २४ ५. बन्ध परिचय इस पर से ही मूर्तीक पदार्थों के साथ ज्ञान-भाव के बन्धन की सिद्धि होती है। इस बन्ध-विशेष के कारण जीव का भाव भी कथंचित् मूर्तीक कहा जाता है। बन्ध की इस विचित्रता को बताने का यह अर्थ न समझ लेना कि यहाँ कदाचित् आत्मा को भौतिक पदार्थ जैसा कुछ स्वीकार किया जा रहा है। यद्यपि यह त्रिकाल चेतन है, परन्तु इसमें 'द्रव्य बन्ध' तथा 'भाव बन्ध' की शक्ति-विशेष भी स्वीकारनीय है, क्योंकि वह सर्व-प्रत्यक्ष है । यही उपरोक्त कथन का तात्पर्य है। ४. पंच विध शरीर-"मृत्यु हो जाने पर तो क्षण भर के लिए अर्थात् दसरा शरीर धारण नहीं कर ले तब तक पूर्व शरीर से छूट जाने के कारण अमूर्तीक हो ही जाता है," ऐसी शंका को भी यहाँ स्थान नहीं है क्योंकि तब भी द्रव्य तथा भाव दोनों ही दिशाओं में बन्धा हुआ होने के कारण वह मूर्तीक ही है। भले बाहर का स्थूल शरीर छूट जाये पर शरीर से मुक्त नहीं होता, क्योंकि शरीर पाँच माने गए हैं-औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण । बाहर का यह पंच-भौतिक स्थूल शरीर औदारिक है । देव नारकियों के विशेष प्रकार के शरीर वैक्रियक होते हैं, जो इन आँखों से दिखाई नहीं देते। कुछ योगियों को भी तप के प्रभाव से वह प्राप्त हो जाता है । इसके अतिरिक्त भी उन लोगों में से किन्हीं को एक विचित्र प्रकार का अदृष्ट तथा सूक्ष्म शरीर प्राप्त हो जाता है, जिसका परिचय देने का यहाँ अवकाश नहीं । उसे आहारक शरीर कहते हैं। इन तीनों के भीतर और भी दो अत्यन्त सूक्ष्म शरीर रहते हैं-तैजस तथा कार्मण। शरीर में स्फूर्ति, क्रिया तथा कान्ति उत्पन्न करने वाला तैजस है और अष्ट कर्मों के संघातरूप कार्मण है, जिसका कोई भी इन्द्रिय-गम्य लक्षण या चिह्न दिखाया नहीं जा सकता। यह कार्मण शरीर ही प्रकृते विषय का वाच्य है। इसका निर्माण कार्मण वर्गणाओं से होता है। यद्यपि मृत्यु होने पर बाह्य का औदारिक-शरीर त्यागपत्र दे देता है, परन्तु यह कभी भी नहीं हटता । यद्यपि इसमें प्रतिक्षण कुछ नई वर्गणाओं की वृद्धि और कुछ पुरानी वर्गणाओं की हानि अवश्य होती रहती है, परन्तु संतान क्रम से यह उस समय तक बराबर बना रहता है, जब तक कि जीव स्वयं उद्यम-पूर्वक वीतरागता का आश्रय लेकर तपश्चरण की अग्नि में उसे भस्म नहीं कर देता । अत: कार्मण शरीर ही जीव का मूल शरीर है। इसे सूक्ष्म या लिंग शरीर भी कहते हैं। ऊपर जिस शरीर-बन्धका कथन कर आये हैं उसका तात्पर्य मुख्यत: इसी से है। यही जीव तथा स्थूल शरीर की सन्धि में गोंद का काम करता है। जिस प्रकार कि दो धातुओं को वेल्डिंग द्वारा जोड़ने पर मध्य में एक सूक्ष्म सन्धि उत्पन्न हो जाती है, जिसमें दोनों धातुओं का संयोगी रूप स्थित रहता है; उसी प्रकार जीव तथा स्थूल शरीर के मध्य में कार्मण शरीर स्थित रहता है जिसके कारण वे दोनों परस्पर में जुड़े रहते हैं। बाह्य शरीर छूट जाने पर भी इसके कारण जीव मूर्तीक ही बना रहता है, और पुन: दूसरे शरीर से बँध जाता है।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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