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२. वस्तु स्वभाव
कर्म सिद्धान्त में या संस्थान बनाने में कारण है, क्योंकि परमाणुओं के मिले बिछुड़े बिना अथवा प्रदेशों का संकोच विस्तार हुए बिना आकृतियों का निर्माण असम्भव है । पुद्गल की परिस्पन्दन-रूप सूक्ष्म-क्रिया स्कन्धों में स्थित परमाणुओं में होती है, अर्थात् उनका परस्पर एक दूसरे के भीतर अनुप्रवेश करना तथा बाहर निकलना ही पुद्गल स्कन्धों में नित्य चलने वाला परिस्पन्दन है। इसी प्रकार जीव की परिस्पन्दन रूप सूक्ष्म-क्रिया उसमें स्थित प्रदेशों में होती है, अर्थात् उनका परस्पर एक दूसरे के भीतर अनुप्रवेश करना तथा बाहर निकलना ही जीवों में नित्य चलने वाला परिस्पन्दन है। इसी को जीव-प्रदेशों का सुकड़ना फैलना अथवा संकोच विस्तार करना कहते हैं, क्योंकि 'प्रदेशों के एक दूसरे में घुसे बिना संकोच और बाहर निकले बिना विस्तार संभव नहीं। पुद्गल स्कन्धों में तथा जीव में अपना-अपना यह परिस्पन्दन भीतर ही भीतर सूक्ष्म रूप से प्रतिक्षण होता रहता है, परन्तु बाह्य में बहुत काल पश्चात् वह केवल उस समय प्रतीति में आता है जबकि इनकी आकृति में कुछ स्थूल परिवर्तन हो चुकता है।
पुद्गल में क्योंकि परमाणु पृथक्-पृथक् रहते हुए परस्पर में मिले रहते हैं, इसलिये वहाँ परिस्पन्दन का होना समझ में आ जाता है, परन्तु एक अखण्ड जीव द्रव्य में वह समझ नहीं आता, क्योंकि उसके प्रदेश पुद्गल के परमाणुओं की भाँति पृथक् नहीं हैं । यद्यपि कठिन है, पर तनिक विचार करने पर जिस किसी प्रकार उसे भी समझा अवश्य जा सकता है। शरीर के किसी अंग-विशेष में पीड़ा होने पर या सर दर्द होने पर अन्दर ही अन्दर जो लहरें सी उठती तथा दौड़ती प्रतीत होती हैं, किसी पत्थर पर खुरदरी वस्तु से खुचर-खुचर करने पर उसका शब्द सुनने मात्र से हृदय स्थल में जो तीखी लहर उठती प्रतीत होती है, सहसा ही डर जाने पर सर्वाङ्ग में जो सनसनी सी फैल जाती है, झूले पर झूलने से या अपने पाँव पर ही घुमेर खाने से जो अन्दर तथा बाहर सब कुछ घूमता प्रतीत होता है उस परसे जीव का प्रदेश-परिस्पन्दन स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। जीव के इस प्रदेश-परिस्पन्दन को 'योग' नाम दिया गया है, जो मन, वचन व काय के निमित्त से तीन प्रकार का हो जाता है । वैशेषिक दर्शन-मान्य प्रयत्न' नामक गुणके साथ इसकी तुलना की जा सकती है।
क्रिया रूप द्रव्य-पर्याय का परिचय दे दिया गया, अब परिणाम रूप भाव-पर्याय का संक्षिप्त कथन करता हूँ। क्रिया की भाँति परिणाम भी दो प्रकार का है स्थूल तथा सूक्ष्म । पुद्गल में खट्टा मीठापना और जीव में क्रोधादि भाव स्थल परिणाम हैं और उनमें प्रतिक्षण होने वाली हानि-वृद्धि सूक्ष्म परिणमन है । वर्ष भर में ज्ञान का काफी विकास हो जाने पर ही वह बढ़ा हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वह प्रति क्षण बढ़ता हुआ ही एक वर्ष पश्चात् इस दशा को प्राप्त हुआ है। जिस प्रकार घण्टे भर में पकने वाले भात का पूर्ण पाक वास्तव में उसके क्षणिक पाकांशों के संग्रहका फल है, उसी प्रकार व्यक्त रूप से प्रतीति में आने वाले स्थूल क्रोधादि भाव भी वास्तव