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१. कर्म व कर्म फल
कर्म सिद्धान्त
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४. ईश्वर-कर्तृत्व निषेध - यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ईश्वर नाम का वह व्यक्ति अशरीरी, सर्वज्ञ, शुद्ध व सर्वव्यापी स्वीकार किया गया है । ये सर्व ही विशेषण उपरोक्त स्वीकृति के साथ विरोध को प्राप्त होते हैं । १. शरीर रहित वह शरीरधारियों को विघ्न बाधा या सहायता कैसे पहुँचा सकता है ? स्थूल शरीरधारियों कोड आदि देने के लिए स्थूल शरीर की ही आवश्यकता होती है, पर ऐसा कोई ईश्वर दिखाई देता नहीं है। दिव्य सूक्ष्म शरीर के द्वारा अव्वल तो यह सब कुछ किया जाना सम्भव नहीं है, और यदि जिस किस प्रकार मान भी लें तो, एक ही शरीर से सारे विश्व में युगपत् चित्र विचित्र अनेक कार्य किये जाने कैसे सम्भव हो सकते हैं ? २. सर्वज्ञता तो केवल जानन रूप होती है करने रूप नहीं । वह जीवों को सुख-दुःख देने में कैसे समर्थ हो सकती है, क्योंकि क्या सर्व पदार्थों को देखने वाली नेत्र- इन्द्रिय उनको कोई बाधा भी पहुँचा सकती है ? दूसरी बात यह भी है कि वीतरागता के बिना सर्वज्ञता होनी असम्भव है, क्योंकि इच्छावान् अथवा रागी संसारी जीवों में वह देखी नहीं जाती । वीतराग व्यक्ति के द्वारा यह सब कुछ चित्र विचित्र खेल खेलते रहना कहाँ की युक्ति है, क्योंकि वीतराग ज्ञाता दृष्टा हुआ करते हैं कर्ता हर्ता नहीं । ३. उनकी इच्छा मात्र से अथवा लीला मात्र से यह सब कुछ होना भी गले नहीं उतरता, क्योंकि एक तो अमूर्तीक दूसरे इच्छा-शून्य । यदि मिस्मरेजम की अथवा हिप्नोटिजम की भाँति ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाए तो उसकी वीतरागता सुरक्षित रह नहीं सकती, क्योंकि इच्छा व वीतरागता में विरोध है । ४. सर्वव्यापी किसी व्यक्ति-विशेष के लिए कोई भी कार्य करना असम्भव है, क्योंकि क्रिया करने के लिए हिलने-डुलने की आवश्यकता है, परन्तु सर्वव्यापी कोई भी वस्तु हिल-डुल नहीं सकती, जैसे आकाश |
दूसरी बात यह भी है कि इतना बड़ा कार्य करने के लिए, सर्वलोक में यत्र-तत्र फैले हुए छोटे बड़े प्राणियों के समय-समय के कृत्यों का तथा उन उनके योग्य दण्ड आदि का हिसाब पेटा रखने के लिए, और इस व्यवस्था को कार्यान्वित रूप देने के लिए, राज्य व्यवस्था की भाँति उसे एक लम्बे चौड़े दफ्तर, रजिस्टर, मुनीम, गुमाश्तों की अथवा सैनिकों आदि की आवश्यकता पड़ेगी । वीतरागी व्यक्ति को इस सब प्रपञ्च में पड़ने की आवश्यकता ही क्या है और ऐसा करे तो वह वीतराग विशेषण ही कैसे प्राप्त कर सकता है ? वह तो हमसे भी अधिक घोर संसारी हो जायेगा । लोक के जीवों द्वारा ही परस्पर एक दूसरे को सुख-दुःख मिलता हो सो बात भी युक्त नहीं जँचती, क्योंकि ऐसी अवस्था में उसकी आज्ञा से किसी की हत्या करने वाला या झूठ बोलने वाला व्यक्ति अपराधी कैसे ठहरेगा ? अपराध के अभाव में सुख-दुःख कैसा ?