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अष्टपाहुड
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क्यों जाता?
भावार्थ -- विषयोंके लोभी मनुष्य शीलसे रहित होते हैं अतः ग्यारह अंग और नौ पूर्वका ज्ञान होनेपर भी मोक्षसे वंचित रहते हैं। इसके विपरीत शीलवान् मनुष्य अष्ट प्रवचन मातृकाके जघन्य ज्ञानसे भी अंतर्मुहुर्तके भीतर केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। शीलकी -- वीतरागभावकी कोई अद्भुत महिमा है ।। ३० ।।
जइ णाणेण विसोहो, सीलेण विणा बुहेहि णिद्दिट्ठो ।
दस्स पुव्विस्स य भावो, ण किं पुण णिम्मलो जादो । । ३१ । ।
यदि विद्वान् शीलके बिना मात्र ज्ञानसे भावको शुद्ध हुआ कहते हैं तो दश पूर्वके पाठी रुद्रका भाव निर्मल-- शुद्ध क्यों नहीं हो गया ?
भावार्थ -- मात्र ज्ञानसे भावकी निर्मलता नहीं होती। भावकी निर्मलताके लिए राग, द्वेष और मोहके अभाव की आवश्यकता होती है। राग, द्वेष और मोहके अभावसे भावकी जो निर्मलता होती है वही शील कहलाती है। इस शीलसे ही जीवका कल्याण होता है ।। ३१ ।।
जा विसयविरत्तो, सो गमयदि नरयवेयणां पउरां
ता लेहदि अरुहपयं, भणियं जिन वड्डमाणेण । । ३२ ।।
जो विषयोंसे विरक्त है वह नरककी भारी वेदनाको दूर हटा देता है तथा अरहंतपदको प्राप्त करता है ऐसा वर्धमान जिनेंद्रने कहा है ।
भावार्थ -- जिनागममें ऐसा कहा है कि तीसरे नरक तकसे निकलकर जीव तीर्थंकर हो सकता है सो सम्यग्दृष्टि मनुष्य नरकमें रहता हुआ भी अपने सम्यक्त्वके प्रभावसे नरककी उस भारी वेदनाका अनुभव नहीं करता - उसे अपनी नहीं मानता और वहाँसे निकलकर तीर्थंकर पदको प्राप्त होता है, यह सब शीलकी ही महिमा है ।। ३२ ।।
एवं बहुप्पयारं, जिणेहिं पच्चक्खणाणदरिसीहिं ।
सीलेण य मोक्खयं, अक्खातीदं च लोयणाणेहि ।। ३३ ।।
इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष दर्शनसे युक्त लोकके ज्ञाता जिनेंद्र भगवान्ने अनेक प्रकार कथन किया है कि अतींद्रिय मोक्षपद शीलसे प्राप्त होता है ।। ३३ ।।
सम्मत्तणाणदंसणतववीरियपंचयारमप्पाणं ।
जलणो वि पवणसहिदो, डहंति पोराणयं कम्मं ॥ ३४ ॥
सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य ये पाँच आचार पवनसहित अग्निके समान जीवोंके कर्मोंको दग्ध कर देते हैं । । ३४ ।।
पुरातन