________________
अष्टपाहुड मिच्छत्तं अण्णाणं, पावं पुण्णं चएवि तिविहेण।
मोणव्वएण जोई, जोयत्थो जोयए अप्पा।।२८।। मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्यको मन वचन कायरूप त्रिविधयोगोंसे छोड़कर जो योगी मौन व्रतसे ध्यानस्थ होता है वही आत्माको द्योतित करता है -- प्रकाशित करता है-- आत्माका साक्षात्कार करता है।।२८।।
'जंमए दिस्सदे रूवं, तण्ण जाणादि सव्वहा।
जाणगं दिस्सदे णंतं, तम्हा जंपेमि केण हं।।२९।। जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह बिलकुल नहीं जानता है और जो जानता है वह दिखायी नहीं देता, तब मैं किसके साथ बात करूँ? ।।२९।।
सव्वासवणिरोहेण, कम्मं खवदि संचिदं।
जोयत्थो जाणए जोई, जिणदेवेण भासियं ।।३०।। सब प्रकारके आस्रवोंका निरोध होनेसे संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं तथा ध्याननिमग्न योगी केवलज्ञानको उत्पन्न करता है ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है।।३०।।
२जो सुत्तो ववहारे, सो जोई जग्गए सकज्जम्मि।
जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।३१।। जो मुनि व्यवहारमें सोता है वह आत्मकार्यमें जागता है और जो व्यवहारमें जागता है वह आत्मकार्यमें सोता है।।३१।।
___ इय जाणिऊण जाई, ववहारं चयइ सव्वहा दव्वं।
झायइ परमप्पाणं, जह भणियं जिणवरिंदेण।।३२।। ऐसा जानकर योगी सब तरहसे सब प्रकारके व्यवहारको छोड़ता है और जिनेंद्रदेवने जैसा कहा है वैसा परमात्माका ध्यान करता है।।३२।।
पंच महव्वयजुत्तो, पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। रयणत्तयसंजुत्तो, झाणज्झयणं सया कुणइ ।।३३।।
यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा। जानन दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम्।।१८।। -- समाधिशतके पूज्यपादस्य व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे।।७८ ।। -- समाधिशतके पूज्यपादस्य