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कुंदकुंद-भारती
सपरज्झवसाएणं, देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं ।
सुयदाराईविसए, मणुयाणं वड्ढए मोहो । । १० । ।
'स्वपराध्यवसायके कारण अर्थात् परको आत्मा समझनेके कारण यह जीव अज्ञानवश शरीरादिको आत्मा जानता है । इस विपरीत अभिनिवेशके कारण ही मनुष्योंका पुत्र तथा स्त्री आदि विषयोंमें मोह बढ़ता
।। १० ।।
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मिच्छाणाणेसु रओ, मिच्छाभावेण भाविओ संतो। मोहोदएण पुणरवि, अंगं सं मण्णए मणुओ । । ११ । ।
यह मनुष्य मोहके उदयसे मिथ्याज्ञान में रत है तथा मिथ्याभावसे वासित होता हुआ फिर भी शरीरको आत्मा मान रहा है ।। ११ ।।
जो देहे णिरवेक्खो, णिद्वंदो णिम्ममो णिरारंभो ।
आदसहावे सुरओ, जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। १२ । ।
जो शरीर में निरपेक्ष है, द्वंद्वरहित है, ममतारहित है, आरंभरहित है और आत्मस्वभावमें सुरत है - - संलग्न है वह योगी निर्वाणको प्राप्त होता है । । १२ ।।
परदव्वरओ बज्झइ, विरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिणउवएसो, समासओ बंधमोक्खस्स ।। १३ ।।
परद्रव्योंमें रत पुरुष नाना कर्मोंसे बंधको प्राप्त होता है और परद्रव्यसे विरत पुरुष नाना कर्मों मुक्त होता है। बंध और मोक्षके विषयमें जिनेंद्र भगवान्का यह संक्षेपसे उपदेश है । । १३ ।। सद्दव्वरओ सवणो, सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण ।
सम्मत्तपरिणदो उण, खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि । ।१४।।
स्वद्रव्यमें रत साधु नियमसे सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यक्त्वरूप परिणत हुआ साधु दुष्ट कर्मोंको नष्ट करता है । । १४ ।।
जो पुण परदव्वरओ, मिच्छादिट्ठी हवेइ णो साहू | मिच्छत्तपरिणदो उण, बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ।। १५ ।।
१. 'स्वं इति परस्मिन् अध्यवसायः स्वपराध्यवसाय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'यह आत्मा है' इस प्रकार परपदार्थमें जो निश्चय होता है वह स्वपराध्यवसाय कहलाता है ।।
१.
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो ।
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज । । १५० ।। समयप्राभृत