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कुदकुद-भारता किं जंपिएण बहुणा, अत्थो धम्मो य काममोक्खो य।
अण्णेवि य वावारा, भावम्मि परिट्ठिया सव्वे ।।१६४।। बहुत कहनेसे क्या? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ तथा अन्य जितने भी व्यापार हैं वे सब भावोंमें ही अवस्थित हैं -- भावोंके ही अधीन हैं।।१६४।।
इय भावपाहुडमिणं, सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्म।
जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ अविचलं ठाणं ।।१६५ ।। इस प्रकार सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट इस भावपाहुड ग्रंथको जो भलीभाँति पढ़ता है, सुनता है और उसका चिंतन करता है वह अविचल स्थान प्राप्त करता है।।१६५ ।।
इस प्रकार भावपाहुड पूर्ण हुआ।
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मोक्षप्राभृतम् णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण।
चइऊण य परदव्वं, णमो णमो तस्स देवस्स।।१।। जिन्होंने कर्मोंका क्षय करके तथा परद्रव्यका त्याग कर ज्ञानमय आत्माको प्राप्त कर लिया है उन श्री सिद्धपरमेष्ठीरूप देवके लिए बार-बार नमस्कार हो।।१।।
णमिऊण य तं देवं, अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं ।
वोच्छं परमप्पाणं, परमपयं परमजोईणं ।।२।। अनंत उत्कृष्ट ज्ञान तथा अनंत उत्कृष्ट दर्शनसे युक्त, निर्मलस्वरूप उन सर्वज्ञ वीतरागदेवको नमस्कार कर मैं परम योगियोंके लिए परमपदरूप परमात्माका कथन करूँगा।।२।।
जं जाणिऊण जोई, जोअत्थो जोइऊण अणवरयं ।
अव्वाबाहमणंतं, अणोवमं हवइ णिव्वाणं ।।३।। जिस आत्मतत्त्वको जानकर तथा जिसका निरंतर साक्षात् कर योगी ध्यानस्थ मुनि बाधारहित, अनंत, अनुपम निर्वाणको प्राप्त होता है।। ३।।
तिपयारो सो अप्पा, 'परभिंतरबाहिरो दु हेऊणं।
तत्थ परो झाइज्जइ, अंतोवायेण चयइ बहिरप्पा।।४।। १. यं अर्थं जोइऊण दृष्ट्वा इति संस्कृतटीका, पुस्तकान्तरे जोयत्थो योगस्थो ध्यानस्थ इत्यर्थः स्वीकृतः। २. 'परमंतरबाहिरो दु देहीणं' इति पाठो जयचन्द्रवचनिकायां स्वीकृतः।