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अष्टपाहुड
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जिनवचनसे विमुख रहनेवाला जीव मिथ्यात्व, कषाय, असंयम, योग और अशुभ लेश्याओंके द्वारा अशुभ कर्मको बाँधता है।।११७ ।।
तविवरीओ बंधइ, सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो।
दुविहपयारं बंधइ, संखेपेणेव वज्जरियं ।।११८ ।। उससे विपरीत जीव भावशुद्धिको प्राप्त होकर शुभ कर्मका बंध करता है। इस प्रकार जीव अपने शुभ भावसे दो प्रकारके कर्म बाँधता है ऐसा संक्षेपसे ही कहा है।।११८ ।।
णाणावरणादीहिं य, अट्टहि कम्मेहिं वेढिओ य अहं।
डहिऊण इण्हिं पयडमि, अणंतणाणाइ गुणचित्तां ।।११९।। हे मुनि! ऐसा विचार कर कि मैं ज्ञानावरणादिक आठ कर्मोंसे घिरा हुआ हूँ। अब मैं इन्हें जलाकर अनंत ज्ञानादि गुणरूप चेतनाको प्रकट करता हूँ।।११९ । ।
सीलसहस्सट्ठारस, चउरासी गुणगणाण लक्खाई।
भावहि अणुदिणु णिहिलं, असप्पलावेण किं बहुणा।।१२०।। हे मुनि! तू अठारह हजार प्रकारका शील और चौरासी लाख प्रकारके गुण इन सबका प्रतिदिन चिंतन कर। व्यर्थ ही बहुत बकवाद करनेसे क्या लाभ है? ।।१२० ।।
झायहि धम्म सुक्कं, अट्टरउदं च झाणमुत्तूण ।
रुद्दय़ झाइयाई, इमेण जीवेण चिरकालं ।।१२१।। आर्त और रौद्र ध्यानको छोड़कर धर्म्य और शुक्ल इन दो ध्यानोंका ध्यान करो। आर्त और रौद्र ध्यान तो इस जीवने चिरकालसे ध्याये हैं।।१२१ । ।
जे केवि दव्वसवणा, इंदियसुहआउला ण छिंदंति।
छिंदंति भावसवणा, झाणकुठारेहिं भवरुक्खं ।।१२२।। जो कोई द्रव्यलिंगी मुनि इंद्रियसुखोंसे व्याकुल हो रहे हैं वे संसाररूपी वृक्षको नहीं काटते हैं, परंतु जो भावलिंगी मुनि हैं वे ध्यानरूपी कुठारोंसे इस संसाररूपी वृक्षको काट डालते हैं।।१२२ ।।
जह दीवो गब्भहरे, मारुयबाहा विवज्जिओ जलइ।
तह रायानिलरहिओ, झाणपईवो वि पज्जलई।।१२३।। जिस प्रकार गर्भगृहमें रखा हुआ दीपक हवाकी बाधासे रहित होकर जलता है उसी प्रकार रागरूपी हवासे रहित ध्यानरूपी दीपक जलता रहता है।।१२३।।
झायहि पंच वि गुरवे, मंगलचउसरणलोयपरियरिए। सुरणरखेयरमहिए, आराहणणायगं वीरे।।१२४ ।।