________________
होकर अनंतसंसारी हुआ । । ५० ।।
भावसमणो य धीरो, जुवईजणवेड्डिओ विसुद्धमई ।
णामेण सिवकुमारो, परीत्तसंसारिओ जादो । । ५१ ।।
भावलिंगका धारक धीर वीर शिवकुमार नामका मुनि युवतिजनोंसे परिवृत होकर भी विशुद्धहृदय बना रहा और इसीलिए संसारसमुद्रसे पार हुआ । । ५१ । ।
अंगाई दस य दुण्णि य, चउदसपुव्वाइं सयलसुयणाणं । पढिओ अ भव्वसेणो, ण भावसवणत्तणं पत्तो । । ५२ ।।
भव्यसेन नामक मुनिने बारह अंग और चौदह पूर्वरूप समस्त श्रुतज्ञानको पढ़ लिया तो भी वह भावश्रवणपनेको प्राप्त नहीं हुआ । । ५२ ।।
तुसमासं घोसंतो, भावविसुद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य सिवभूई, केवलणाणी फुडं जाओ । । ५३ ।।
यह बात सर्वप्रसिद्ध है कि विशुद्ध भावोंके धारक और अत्यंत प्रभावसे युक्त शिवभूति मुनि 'तुषमाष' पदको घोकते हुए -- याद करते हुए केवलज्ञानी हो गये । । ५३ ।।
भावेण होइ णग्गो, बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीयणियरं, णासइ भावेण दव्वेण । ॥५४॥
भावसे ही निर्ग्रथ रूप सार्थक होता है, केवल बाह्यलिंगरूप नग्न मुद्रासे क्या प्रयोजन है? प्रकृतियों का समुदाय भावसहित द्रव्यलिंगसे ही नष्ट होता है । । ५४ ।।
णग्गत्तणं अकज्जं, भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं ।
इय णाऊण य णिच्चं, भाविज्जहि अप्पयं धीर । । ५५ ।।
जिनेंद्र भगवान्ने भावरहित नग्नताको व्यर्थ कहा है ऐसा जानकर हे धीर! सदा आत्माकी भावना
कर ।। ५५ ।। -
देहादिसंगरहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो ।
अप्पा अप्पम्म रओ, स भावलिंगी हवे साहू ।। ५६ ।।
जो शरीरादि परिग्रहसे रहित है, मान कषायसे सब प्रकार मुक्त है और जिसका आत्मा आत्मामें रत रहता है वह साधु भावलिंगी है ।। ५६ ।।
ममत्तिं परिवज्जामि, निम्ममत्तिमुवट्ठिदो ।
आलंबणं च मे आदा, अवसेसाई वोसरे । । ५७ ।।