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अष्टपाहुड
हवा किया जाना, तोड़ा जाना और रोका जाना आदिके दुःख प्राप्त किये हैं ।। १० ।। आगंतु अमाणसियं, सहजं सारीरियं च चत्तारि ।
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दुखाइं मणुयजम्मे, पत्तोसि अनंतयं कालं । । ११ । ।
हे जीव ! तूने मनुष्यगतिमें आगंतुक, मानसिक, साहजिक और शारीरिक ये चार प्रकारके दुःख अनंतकाल तक प्राप्त किये हैं ।। ११ ।।
सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं णिच्चं ।
संपत्तोसि महाजस, दुक्खं सुहभावणारहिओ ।। १२ ।।
महाश धारक! तूने शुभ भावनासे रहित होकर स्वर्ग लोकमें देव देवियोंका वियोग होने पर तीव्र मानसिक दुःख प्राप्त किया है ।। १२ ।।
कंदप्पमाइयाओ, पंचवि असुहादिभावणाई य ।
भाऊण दव्वलिंगी, पहीणदेवो दिवे जाओ । । १३ ।।
हे जीव! तू द्रव्यलिंगी होकर कांदर्पी' आदि पाँच अशुभ भावनाओंका चितवन कर स्वर्ग में नीच देव हुआ
पासत्थभावणाओ, अणाइकालं अणेयवाराओ । भाऊण दुहं पत्तो, कुभावणाभावबीएहिं । । १४ । ।
हे जीव! तूने अनादि कालसे अनेक बार पार्श्वस्थ कुशील, संसक्त, अवसन्न और मृगचारी आदि भावनाओंका चिंतवन कर खोटी भावनाओंके भावरूप बीजोंसे दु:ख प्राप्त किये हैं । । १४ ।।
देवा गुण विहूई, इड्डी माहप्प बहुविहं दट्ठे ।
होऊण हीणदेवो, पत्तो बहुमाणसं दुक्खं । । १५ । ।
हे जीव! तूने नीच देव होकर अन्य देवोंके गुण विभूति ऋद्धि तथा बहुत प्रकारका माहात्म्य देखकर बहुत भारी मानसिक दुःख प्राप्त किया है । । १५ ।।
चउविह विकहासत्तो, मयमत्तो असुहभावपयडत्थो । होऊण कुदेवत्तं, पत्तोसि अणेयवाराओ । । १६ ।।
हे जीव! तू चार प्रकारकी विकथाओंमें आसक्त होकर, आठ मदोंसे मत्त होकर और अशुभ भावोंसे स्पष्ट प्रयोजन धारण कर अनेक बार कुदेव पर्याय -- भवनत्रिकमें उत्पन्न हुआ है । । १६ ।।
१. १. कांदर्पी, २. किल्विषिकी, ३. संमोही, ४. दानवी, ५. आभियोगिकी ये ५ अशुभ भावनाएँ हैं।