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पाठ आठवाँ
जिनवाणी-स्तुति
वीर हिमाचलतें निकसी, गुरु गौतम के मुख कुंड ढरी है । मोह महाचल भेद चली, जग की जड़तातप दूर करी है ।। ज्ञान पयोनिधि माँहि रली, बहु भंग तरंगनिसों उछरी है । ता शुचि शारद गंग नदी प्रति, मैं अंजुलि कर शीश धरी है ।।१।। या जगमंदिर में अनिवार, अज्ञान अंधेर छयो अति भारी । श्री जिन की धुनि दीपशिखा सम, जो नहिं होत प्रकाशन-हारी।। तो किस भांति पदारथ पाँति, कहाँ लहते रहते-अविचारी । या विधि संत कहे धनि है, धनि हैं जिन वैन बड़े उपकारी ।।२।।
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